अमित शाह ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी तरफ़ से कोई कमी नहीं की. फिर भी नहीं दिखा इसका रंग.
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद अमित शाह ख़ामोश हैं. उन्होंने ये लेख लिखे जाने तक न तो अरविंद केजरीवाल को बधाई दी है न अपनी पार्टी की हार पर ही कोई टिप्पणी की है. ये सच है कि पार्टी की कमान अब उनके हाथ नहीं है.
दो दशक से हारते जाने का मतलब है कि दिल्ली भाजपा में कुछ बुनियादी ख़ामी है, लेकिन इस हार से ब्रैंड अमित शाह को नुक़सान हुआ है. लोग कहने भी लगे थे जिस सरकार को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने में दर नहीं लगी, उसके लिए धरने पर बैठे लोगों को हटाना कौन सा मुश्किल काम है. इसलिए ये नाराज़ लोग या तो वोट देने नहीं गए और जो गए उन्होंने भाजपा के ख़िलाफ़ वोट दिया.
पार्टी के दूसरे नेताओं से भी कहा गया कि वे बड़ी रैलियों की बजाय नुक्कड़ सभाओं पर ध्यान दें. उन्होंने चुनाव को एक तरह से केजरीवाल बनाम अमित शाह बना दिया. फिर भी भाजपा का 22 साल का वनवास ख़त्म नहीं हुआ. क्षेत्रीय दलों से चुनावी लड़ाई में भाजपा की हार का एक नया आयाम है.अमित शाह का कोई भी दांव नतीजे को बदलना तो दूर लड़ाई को नजदीकी बनाने में भी कामयाब नहीं हुआ, यह हार उन्हें काफ़ी समय तक खलेगी.
इसके बावजूद कि मोदी-शाह के युग में शहरी ग़रीबों में भाजपा का वोट काफ़ी बढ़ा है. लेकिन दिल्ली में वह नौ दिन में अढ़ाई कोस भी नहीं चल पाई. चुनाव के समय झुग्गी-झोपड़ी पर्यटन से न कुछ होना था और न हुआ. प्रदेश के बाहर के नेताओं की चुनाव के समय भीड़ जुटाने का 2015 में दिल्ली और बिहार दोनों जगह नुक़सान हुआ और पार्टी ने यह नीति बदली.
तो पुराने स्कूलों में कुछ नए कमरे बनवाए, रंग रोगन किया, फर्नीचर और बच्चों की यूनिफार्म बदल दी. इसी तरह दूसरी योजनाओं की खामियों को लोगों तक पहुंचाने में भाजपा नाकाम रही.
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