अयोध्या विवाद: किन्हें, क्यों और कैसे याद आएंगे चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़

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देश के 50वें चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ अंततः इस ‘चिंता’ के साथ ही सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं कि क्या पता, भावी इतिहास उन्हें किस रूप में याद करेगा.

हद तो यह कि उनके उक्त ‘रहस्योद्घाटन’ में संविधान और कानून का जो विरोध व अन्याय दिख रहा है, उसमें भी उनका ‘योगदान’ सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने ऐसे विरोध व अन्याय को रोकने का अपना संवैधानिक फर्ज निभाने के बजाय उसे देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचाने में भूमिका निभाई. वरना अयोध्या विवाद को सुलझाने के क्रम में निचली अदालतों के जजों ने इससे भी कई गुने ज्यादा बड़े ‘चमत्कार’ कर रखे हैं.

तब हुआ यह था कि जिला जज पांडेय ने फैजाबाद के उमेशचंद्र पांडेय नाम के एक वकील की सिर्फ एक दिन पहले दी गई उक्त ताले खोलने की अर्जी पर आदेश पारित करने से पहले दूसरे पक्ष को ठीक से सुनना तक गवारा नहीं किया था. उन्होंने फैजाबाद के जिलाधिकारी व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को तलब कर इतना भर पूछा था कि वे ताले खोलने से कानून व्यवस्था की कोई समस्या तो खड़ी नहीं होगी?

जैसे अब पूछा जा रहा है कि संविधान और कानून की शरण छोड़कर जस्टिस चंद्रचूड़ अपने ईश्वर की शरण में क्यों गए, तब कृष्ण मोहन पांडेय से भी पूछा गया था कि उनके द्वारा जज के तौर पर कोई फैसला करने के लिए कानून के बजाय अंतरात्मा की आवाज को आधार बनाने का भला क्या तुक था? कई आलोचकों ने उनके आदेश को ‘संघी अंतरात्मा का न्याय’ बताने से भी गुरेज नहीं किया था. लेकिन उनसे जुड़े सवालों के जवाब नहीं मिले तो आज तक नहीं मिले.

उन्होंने बहुचर्चित शाहबानो मामले में ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के एवज़ में हिंदुओं को ख़ुश करने के लिए राजीव गांधी द्वारा विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाए जाने की धारणा को बिल्कुल ग़लत ठहराते हुए यह भी कहा था कि एक फरवरी, 1986 को केंद्रीय मंत्री अरुण नेहरू उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ लखनऊ में मौजूद थे.

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