अविचल: स्थिरता और आत्मा की कीमती पहचान

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अविचल: स्थिरता और आत्मा की कीमती पहचान
हिंदीसाहित्यमैथिलीशरण गुप्त
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हिंदी हैं हम शब्द श्रृंखला का आज का शब्द है - अविचल, जिसका अर्थ है अचल, स्थिर, अटल। मैथिलीशरण गुप्त की कविता के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि आत्मा की शुद्धता और स्थिरता ही सच्ची महत्ता प्रदान करती है, चाहे बाहरी रूप कैसा भी हो।

' हिंदी हैं हम' शब्द शृंखला में आज का शब्द है- अविचल , जिसका अर्थ है- अचल, स्थिर, अटल। प्रस्तुत है मैथिलीशरण गुप्त की कविता- चांडाल हुआ किसी नृप के घर लाल, तन पर किंतु रीछ-से बाल! बोले तब दैवज्ञ विशाल— “झाड़े कहीं इसे चांडाल!” सुन कर सभी हो गए सन्न; पर क्या करते नहीं विपन्न? लेकर उसे नदी के पार, पहुँचा सचिव श्वपच के द्वार। परम स्वच्छ था उसका गेह; अविचल मन था, निर्मल देह। सुस्थिर मुद्रा में आसीन, वह था प्रभु-चिंतन में लीन। किया नहीं उसने दृकपात, कर न सका मंत्री भी बात। सोचा किया...

हुई थी सारी गैल। गाड़ीवान बैल को डाट, मुँह से पूँछ रहा था काट! काला और कुरूप कराल, मैल दाँत विलोचन लाल। फिर भी पहने था उपवीत! काँप गया नृप-सचिव सभीत। पुलक उठा फिर उसका गात्र— देखा जो उसका जल-पात्र। “इसके जल-स्पर्श से हाल झड़ जावेंगे शिशु के बाल?” बोला वह—“भाई, तू कौन?” पर गाड़ीवाला था मौन। फिर फिर पूछा—था ही रुष्ट, गरजा पकड़ जनेऊ दुष्ट;— “अब भी नहीं गया यह टूट, गई अरे क्या तेरी फूट? मैं हूँ कौन? तुझे क्या काम? सुना नहीं बाँमन का नाम?” “अहा! क्या ब्राह्मण हैं आप? रहें दयालु, न दें अभिशाप। मिले...

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