1970 के दशक का एक ऐसा मामला जिसके रहस्य की परतें आज भी पूरी तरह नहीं खुल सकी हैं.
दिन के ग्यारह बजकर 35 मिनट पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की संसद मार्ग शाखा के चीफ़ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा अपने केबिन में बैठे किसी ग्राहक से बात कर रहे थे. तभी उनके फ़ोन नंबर 45486 की घंटी बजी.
मल्होत्रा ने उनसे पूछा क्या ये रुपए किसी चेक या पावती के एवज़ में दिए जाएंगे तो जवाब आया, “रसीद या चेक आपको बाद में भेज दिए जाएँगे. आप एक गाड़ी में रुपए लेकर फ़्रीचर्च पर पहुंच जाइए, क्योंकि ये पैसा वायुसेना के विमान से बांग्लादेश भेजा जाना है. इसके बारे में आप किसी से कोई चर्चा नहीं करेंगे.’’ मल्होत्रा वहाँ से उठे और सीधे अपने अपने सहायक रामप्रकाश बत्रा के केबिन में पहुंचे. उन्होंने बत्रा से पूछा, “इस समय सौ रुपए के कितने बंडल आपके पास हैं ?” बत्रा ने कैश रजिस्टर पर नज़र मारकर कहा कि करीब 180 या 190 बंडल यानी करीब 1.8 से 1.9 लाख रुपए.
“मैंने मित्रा से कहा कि मुझे एक एंबेसडर कार दी जाए क्योंकि मुझे एक टॉप सीक्रेट सरकारी काम पर जाना है. मैंने उनसे ये भी कहा कि मुझे ड्राइवर की ज़रूरत नहीं है. मैं कार ख़ुद ड्राइव करूँगा.” वेद प्रकाश मल्होत्रा ने बैंक से महज़ 100 मीटर दूर फ़्री चर्च पर अपनी गाड़ी रोकी. उस समय दोपहर के साढ़े 12 बजे थे. एक लंबे, चौड़े गोरे रंग के शख़्स, जिसने जैतूनी रंग की टोपी पहन रखी थी उनकी तरफ़ बढ़ कर कहा, ‘मैं बांग्लादेश का बाबू हूँ.’
बाद में ‘बांग्लादेश के बाबू’ की शिनाख़्त रुस्तम सोहराब नागरवाला के नाम से हुई जो सेना के एक पूर्व कैप्टन थे. संसद भवन में जब उन्होंने इंदिरा गाँधी से मिलने की इच्छा प्रकट की तो उनके निजी सचिव एनके शेषन बाहर आए. मल्होत्रा ने सारी घटना शेषन को बताई. शेषन ने सारी बात प्रधानमंत्री तक पहुंचाई. उसी दिन आधी रात को पुलिस ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर बताया कि टैक्सी स्टैंड से नागरवाला राजेंदर नगर में एक घर में गया. वहाँ से उसने एक सूटकेस लिया. वहाँ से वो पुरानी दिल्ली के निकल्सन रोड गया.
इंदिरा गाँधी ने भी अपने दो पन्ने के लिखित बयान में कहा, “बैंक में मेरे निजी खाते से जुड़े सारे मामले भी मेरे निजी सचिव देखा करते थे. मैंने आज तक बैंक जाकर अपने खाते से पैसा नहीं निकाला.”शायद भारत के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी व्यक्ति के गिरफ़्तार किए जाने के तीन दिन के अंदर उस पर मुक़दमा चला कर उसे सज़ा भी सुना दी गई.
नागरवाला ने बताया कि उसे बैंक को ठगने का विचार तब आया जब वो वहाँ 100 रुपए के नोट का छुट्टा कराने गया था. इस पूरे प्रकरण में उसका कोई साथी नहीं था. इस बीच नागरवाला ने उस समय के एक मशहूर साप्ताहिक अख़बार ‘करंट’ के संपादक डीएफ़ कराका को पत्र लिखकर कहा कि वो उन्हें इंटरव्यू देना चाहते हैं. ख़ास तौर से उस समय जब उनकी बांग्लादेश नीति के कारण निक्सन प्रशासन उनसे काफ़ी नाराज़ था लेकिन इस आरोप के समर्थन में कोई साक्ष्य नहीं पेश किए गए थे.
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