किस्सागोई ...फिर एक दिन ऐसा हुआ कि दलेर मेंहदी संगीत सीखने के लिए घर से भाग गए. Shivendrak
आज उस कलाकार की कहानी जिसकी बुलंद आवाज की दुनिया कायल है. जिसके गाने के बजे बिना आज भी हिंदुस्तानी पार्टियां अधूरी हैं. ऐसा इसलिए कि डांस के नाम पर ना-नुकुर करने वालों के भी पैर उस कलाकार के गानों पर हिलने लगते हैं. उस खिलाड़ी का नाम है दलेर मेंहदी. दलेर मेंहदी अपनी पॉप एल्बम से लेकर फिल्मी गानों तक कामयाबी की गारंटी हैं. हिंदी फिल्मों के लिए उन्होंने बहुत ज्यादा प्लेबैक गायकी नहीं की है. लेकिन जब भी उन्होंने फिल्मी सुर साधे हैं वो अलग ही दुनिया में ले गए हैं.
दलेर मेंहदी की नानी के पिता के बारे में कहा जाता है कि जब वो गाना गाकर आते थे तो उनके यहां पैसे गिने नहीं जाते थे बल्कि तराजू पर तौले जाते थे. लेकिन ये सारी कहानी 1947 के पहले की हैं. 1947 में बंटवारे के बाद दलेर मेंहदी के परिवार को भी संघर्ष करना पड़ा. लेकिन घर के बाग बगीचों की वजह से कभी खाने पीने की बड़ी दिक्कत नहीं आई. दलेर जब करीब पांच साल के थे तो उन्होंने अपने पिता जी से सीखाना शुरू किया.“ये कोई नई बात नहीं थी. हमारे घर में किसी ने गाना सीखा तो किसी ने तबला बजाना.
दलेर मेंहदी का जन्म बिहार में ही हुआ. इसका फायदा उन्हें ये हुआ कि उन्हें बाद में वहां के संगीत को भी जानने समझने का मौका मिला. पंजाब के साथ साथ बिहार का लोकगीत उन्हें समझ आया. वहीं पर शरारतों का दौर भी शुरू हुआ. दलेर अपनी शरारतों को याद करते हैं- “जैसे ही हरे चने का मौसम आता था तो हम इसी ताक में रहते थे कि हरे चने से लदी कोई ट्रॉली जा रही हो तो चने खाने को मिलें. बिना बताए खींचकर खाने में मजा ही अलग आता था. कई बात तांगे में लदकर चने जा रहे होते थे तो मैं वहां से भी फलियां खींच लिया करता था.
ये किस्सा दिलचस्प है- “जब फिल्म देखने का प्लान बनता था तो मैं सबको ‘इंस्ट्रक्शन’ देता था कि जाओ जाकर घर से पैसे लेकर आओ. ‘मैसेज’ बिल्कुल साफ रहता था कि चाहे पापा से पिटाई भी पड़ जाए तो कोई बात नहीं लेकिन फिल्म देखने के लिए पैसे लेकर ही आना है. बचपन वैसे भी ऐसी प्यारी प्यारी शरारतों से भरा रहता है. मैं जब बहुत छोटा था तो एक बार मैंने दारा सिंह साहब को बिल्कुल करीब से देखा. मैं इतना खुश हो गया कि मैंने जोर से चीखकर मां को आवाज लगाई- देखो दारा सिंह आ गए. दारा सिंह आ गए.
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि दलेर मेंहदी संगीत सीखने के लिए घर से भाग गए. भागे भी तो गोरखपुर. वहां पहुंचने के लिए जो पैसे उन्हें चाहिए थे वो उनकी बहन ने दिए. वहां दलेर मेंहदी ने उस्ताद राहत अली से संगीत सीखना शुरू किया. वो बड़े गुलाम अली खान साहब के शिष्य थे. लेकिन जल्दी ही उन्हें लगा कि ठहराव सा आ गया है तो वो वहां से भागकर वापस आ गए. दलेर याद करके बताते हैं- “जब उस्ताद जी ने पहली बार उन्होंने मुझे सुना तो उनकी आंख में आंसू थे.
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