दिल्ली विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद आम आदमी पार्टी के भविष्य पर प्रश्न चिह्न लग गए हैं. जानकारों का मानना है कि पार्टी का पतन असम गण परिषद के पतन की याद दिलाता है. क्या AAP भी उसी राह पर जा रही है?
आम आदमी पार्टी (आप) को दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी पराजय का सामना करना पड़ा है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 48 सीटें जीतकर 27 सालों बाद दिल्ली की सत्ता में वापसी कर ली है जबकि आम आदमी पार्टी को केवल 22 सीटों पर संतोष करना पड़ा. आम आदमी पार्टी के दिग्गज नेता जैसे पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, मंत्री सौरभ भारद्वाज और सोमनाथ भारती चुनावी अखाड़े में चित हो गए. जानकारों का मानना है कि इस हार के बाद पार्टी में आंतरिक मतभेद गहराने लगेंगे.
यानी आम आदमी पार्टी जिस भाग्य की ओर बढ़ रही है, वह 40 साल पहले असम में गठित असम गण परिषद (एजीपी) के राजनीतिक हाशिए पर चले जाने की यादें ताजा कर देती है. क्या आम आदमी पार्टी भी उसी राह पर जा रही है?असम गण परिषद यानी एजीपी का जन्म असम समझौते (1985) से हुआ था. ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के साथ इस समझौते ने असम आंदोलन को समाप्त कर दिया था. ये आंदोलन बांग्लादेशियों के अवैध इमीग्रेशन के कारण राज्य के सामाजिक और आर्थिक ढांचे में बदलाव से बचने के लिए चलाया गया था. दिसंबर 1985 में हुए असम विधानसभा चुनाव में एजीपी ने 126 में से 67 सीटें जीत लीं और सत्ता में आ गई. हालांकि असम में दो बार शासन करने के बाद भी बार-बार आंतरिक विभाजन के कारण पार्टी की पकड़ कमजोर होती चली गई. साल 2000 के आस-पास उनकी लोकप्रियता में काफी गिरावट आ गई. लेकिन एजीपी ने 20 साल के अंतराल के बाद एनडीए के साथ गठबंधन कर 2024 में एक लोकसभा सीट (बारापेटा) जीती. आम आदमी पार्टी और असम गण परिषद की राजनीतिक यात्राएं एक जैसी रही हैं. अगर अरविंद केजरीवाल दिल्ली की हार से उबरने और पार्टी को भ्रष्टाचार के आरोपों से बाहर निकालने में विफल रहे तो आम आदमी पार्टी का भी भी यही हश्र होने का आशंका है. जब तक राजनीतिक परिस्थितियों में भारी बदलाव नहीं आता आम आदमी पार्टी का अपना मतदाता आधार पुन: हासिल करना आसान नहीं होगा. हालांकि आम आदमी पार्टी के पास ये विकल्प है कि वो असम गण परिषद की तरह गठबंधन में भाग लेकर फल-फूल सके. क्योंकि हरियाणा में कांग्रेस के बहुमत से दूर रह जाने और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बीजेपी के हाथों सत्ता गंवा देने के पीछे उसका गठबंधन ना करना भी एक बड़ी वजह मानी जा रही है.
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