जब से पोल सर्वे ज़्यादा वैज्ञानिक हुए हैं, तब से लगातार गलतियां हो रहीं हैं...
2014 के चुनाव को छोड़ दें, तो 1998 से 2014 तक जितने भी पोल सर्वे हुए, उनमें औसत के हिसाब से करीब 75 लोकसभा सीटों का फर्क आया. यानी जब से पोल सर्वे ज़्यादा वैज्ञानिक हुए हैं, तब से लगातार गलतियां हो रहीं हैं. यह आलम तब है, जब सर्वे के ज़्यादा टूल मौजूद हैं. सर्वे वाले कितनी भी पीठ थपथपाएं, चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करना बेहद मुश्किल काम है. इसकी कई वजहें हैं.
मतदाता का मन जानने के लिए मीडिया के जो टूल हैं, बेहद पुराने हैं और उनमें विविधता की बड़ी कमी है. जो मीडियाकर्मी मतदाताओं का इंटरव्यू करते हैं, वे खास किस्म की पहचान से आते हैं. उनके अपने पूर्वाग्रह भी हैं. मतदाता के मन को जानने को लेकर मीडियाकर्मी की कोई ट्रेनिंग नहीं है. रैंडम सैम्पलिंग की कमी ही बहुत बड़ा कारण है कि मीडियाकर्मी किसी भी गलत नतीजे पर पहुंच जाते हैं.
भारतीय राजनीति में नेता अक्सर पत्रकार से यह जानने की कोशिश करता है कि चुनाव का रुख क्या है. पत्रकार के पास जो टूल हैं, वे इतने नहीं हैं कि चुनावों के अनुमान लगा सकें. मीडियाकर्मी उन विषयों को जरूर हाईलाइट कर पाते हैं, जिनका असर हो सकता है.चुनाव के सवालों को हाईलाइट करने में उसकी चूक तभी होती है, जब वह किसी खास वर्ग तक खुले तौर पर नहीं पहुंच पाता. उदाहरण के तौर पर महिलाओं के मुद्दों को समझने में चूक. आम महिला वोटर वैसे भी अपनी बात खुले तौर नहीं करती.
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