जब दारा शुकोह ने लिखा, स्‍वर्ग वहीं जहां मुल्‍ला न रहते हों

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मुग़ल सम्राट शाहजहां और उनकी पत्नी मुमताज़ महल के बड़े बेटे दारा शुकोह अपने समय के महत्वपूर्ण दार्शनिक, लेखक, शायर, चित्रकार और सूफ़ी साधक थे. अपने वक्त में उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने की कोशिश की लेकिन अंततः अपने भाई औरंगज़ेब के हाथों सत्ता के संघर्ष में हार गए, जिसके बाद उन्हें बंदी बनाकर मृत्युदंड दे दिया गया.

इतिहास के इस विशिष्ट पात्र के जीवन संघर्ष और उनकी वर्तमान प्रासंगिकताओं को हिंदी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने ‘‘ में लिपिबद्ध किया है. इस किताब को हाल में राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. प्रस्तुत है एक अंश:भर में सच्‍चे संत और साधक जब भी अपनी सोच का सच साहस के साथ कहते हैं तब सत्ताएं उनके ख़िलाफ़ खड़ी हो जाती हैं और उनका जीना हराम कर देती हैंउन्‍हें मार डालती हैं. सत्ताएं अनेक प्रकार की होती हैं.

दारा शुकोह शायर भी था. उसके जीवन और लेखन पर लिखने वाले सभी लोग यह स्वीकार करते हैं कि वह कादरी उपनाम से फ़ारसी में शायरी करता था. उसकी फ़ारसी शायरी का दीवान इकसीरेरुबाइयां हैं. रुबाइयां दारा के सूफ़ी मत से संबंधित हैं. दारा के समय के अनेक लेखकों ने उसकी रुबाइयों की तारीफ़ की है. कुछ लेखक उसकी शायरी में दरियादारा हिन्दी या ब्रजभाषा में भी कविता करता था. ब्रजभाषा मुग़ल राजवंश के परिवार की भाषा थी. लगभग मातृभाषा की तरह थी.

इसीलिए क़ाज़‍ियों ने दारा की हत्या का फ़तवा दिया. सूफ़ी साधकों की हत्या का इतिहास लंबा है. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने लिखा हैदारा शुकोह अति आत्‍मविश्‍वासी था इसलिए वह प्रभावशाली दरबारियों के साथ शिष्टाचार का निर्वाह नहीं करता था. यही नहीं अति आत्मविश्वास के कारण किसी की सलाह नहीं मानता था. जिसका दुष्परिणाम उसे सत्ता के लिए औरंगज़ेब के साथ हुए निर्णायक संघर्ष में भुगतना पड़ा.

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