जब नागाओं की तरह रेत पर लोटने लगी विदेशी महिला: इंसानी हड्डियों की माला पहनकर संगम में डुबकी; कुंभ की 8 दिल...

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जब नागाओं की तरह रेत पर लोटने लगी विदेशी महिला: इंसानी हड्डियों की माला पहनकर संगम में डुबकी; कुंभ की 8 दिल...
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साल 1942, दुनिया दूसरा विश्वयुद्ध लड़ रही थी। ब्रिटेन ने जबरन भारतीयों को युद्ध में धकेल दिया था। इससे भारत के बड़े नेता नाराज थे। इसी साल इलाहाबाद में कुंभ लगा। कुंभ को लेकर अंग्रेजों की खासी दिलचस्पी होती थी। वे कुंभ को ग्रेट फेयर कहते थे और टैक्स के जरिए इससे कमाई भी करते थे।

दरअसल, इनके परिवार में जब कोई कम उम्र में मर जाता है, तो उसे ये लोग दफना देते हैं। फिर घर का मुखिया उसके हड्डियों की माला बनाकर गले में पहन लेता है। ये लोग 12 साल तक कुंभ का इंतजार करते हैं। कुंभ आने पर पूरा परिवार प्रयाग आता है और हड्डियों की माला गंगा में प्रवाहित कर दी जाती है। वे गंगा से प्रार्थना करते हैं कि उस बच्चे के प्रति हमारे कुछ दायित्व थे, लेकिन हम निभा नहीं पाए। हे गंगा मां फिर से बच्चे को हमारी गोद में देना।’जब नागा साधु ने तलवार की नोक पर टांग लिया फोटोग्राफर का...

मैंने कहा- ‘मुझे मालूम नहीं था। मुझे लगा कि फोटो खींच लूंगा तो लोग भी देखेंगे।’ उन्होंने कहा- चलो कैमरे में से रील निकालो। मैंने कहा- फोटो खींची नहीं है। उन लोगों ने मुझसे अंग्रेजी में पूछा- ‘क्या हम इसमें स्नान कर सकते हैं?’ मैंने जवाब दिया- ‘नहीं आप लोग यहां मत नहाइए। हेल्थ इश्यू हो सकता है। दूसरी जगह स्नान कर लीजिए।’

जैसे ही नागा साधुओं ने संगम में डुबकी लगाना शुरू किया, 25-30 साल की एक विदेशी महिला अचानक अपने कपड़े उतारने लगी। लोग कुछ समझ पाते, वो बिना कपड़े के तेजी से संगम की तरफ दौड़ी और छलांग लगा दी। इस बीच एक और धमाके की आवाज आ गई। जिधर से आवाज आ रही थी, उधर ही हम आगे बढ़ने लगे। थोड़ी देर में लोग पैनिक होने लगे। इधर-उधर भागने लगे। चूंकि उस दिन मेन बाथिंग डे नहीं था, इसलिए भगदड़ जैसी स्थिति नहीं बनी।

किसी की मां खो गई थी, तो किसी की पत्नी भूल गई थी, तो किसी का बेटा भटकते हुए यहां आ पहुंचा था। मैंने देखा कि सैकड़ों की संख्या में बूढ़ी महिलाएं और बच्चे आंखों में आंसू लिए अपनों की राह देख रहे थे। हर कोई चाहता था कि उसका नाम जल्दी से जल्दी एनाउंस कर दिया जाए। 18 की उम्र में 1946 से यह काम करने वाले राजाराम पहले टीन से बने भोंपू से चिल्लाकर नाम पुकारा करते थे। बाद में यह काम लाउडस्पीकर से होने लगा। धीरे-धीरे प्रशासन ने भी उनका साथ देना प्रारंभ कर दिया। राजाराम तिवारी की लोकप्रियता इतनी थी कि वे 'भूले-भटके या 'भूले-भटकों के बाबा' कहे जाने लगे थे। 88 साल की उम्र में 2016 में उनकी मृत्यु हो गई।'ईसाई मिशनरी ने कुंभ में जमीन मांगी, धर्मांतरण के लिए प्रयाग पहुंचा...

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