ज़ाकिर हुसैन ने बीबीसी से बातचीत में बताया था अपने अनोखे हेयरस्टाइल का राज़ और कैसे करते थे वो अपने तबले से गुफ़्तगू.
भारत के जानेमाने तबला वादक और ग्रैमी अवॉर्ड विजेता उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का निधन हो गया है. वे 73 साल के थे और अमेरिका में रह रहे थे.
मुंबई में पलने-बढ़ने के कारण मुझे हर तरह का संगीत सुनने को मिला. मेरे पिता भी दुनिया भर में घूमते थे और तरह-तरह के टेप मुझे सुनने के लिए देते थे. इसके बाद मैंने अगली पीढ़ी हरि प्रसाद, शिव कुमार, अमज़द भाई के साथ और फिर आज की पीढ़ी शाहिद परवेज़, राहुल शर्मा, अमान-अयान के साथ बजाया. मेरे पिता ने भी मुझे अच्छी चीज़ों को लेने से नहीं रोका. तो मेरे पिता की तालीम नींव थी, लेकिन बाक़ी लोगों में उस्ताद हबीबुद्दीन खाँ, ख़लीफ़ा वाज़िद हुसैन, कंठा महाराजजी, शांता प्रसाद जी का असर भी मुझ पर पड़ा.शास्त्रीय संगीत की दुनिया के बड़े नाम राशिद ख़ान की कहानी
तब मीडिया का भी इतना असर नहीं था. 20-25 साल की मेहनत के बाद कुछ स्टेटस मिला. उससे पहले तो ट्रेन में तीसरे दर्जे में सफर करते थे. मुंबई से पटना, बनारस, कोलकाता जाने में तीन-तीन दिन लग जाते थे. कभी-कभी सीट भी नहीं होती थी. अख़बार बिछाकर नीचे बैठते थे. पिता का हुक्म था कि तबला सरस्वती है और इसे किसी का पैर नहीं लगना चाहिए.
हेयर स्टाइल कभी सोचकर नहीं बनाया. शायद कभी ऐसा हुआ कि नहा धोकर बाहर निकले. जाने की जल्दी थी तो बालों को सुखाने और कंघी करने का मौका नहीं मिला. उस दौरान अमरीका में हिप्पी स्टाइल चल रहा था. लंबे बाल, लंबी दाढ़ी. मैं छोटी उम्र से ही दुनिया भर में घूम रहा हूँ. फिर एक बात ये भी है कि जो चीज़ आपके पास नहीं होती है आप उसके प्रति ज़्यादा आकर्षित होते हैं. मेरा बहुत लोगों से दोस्ताना है तो फिर ध्यान हटाने वाली कोई बात भी नहीं है.तबले के साथ रहना, बात करना. क्या वाकई ऐसी बात है?
फ़िल्में या थिएटर देखे हुए मुझे लगभग 20 साल हो गए हैं. दरअसल, प्रोग्राम के सिलसिले में थिएटर में इतना जाना होता है कि उसके बाद थिएटर में घुसने की इच्छा नहीं होती.
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