दिल्ली में एक बड़ी आबादी कूड़े के पहाड़ों के पास रहती है, लेकिन कोई सटीक आँकड़ा नहीं है. पहाड़ जैसे ऊंचे हो रहे भलस्वा लैंडफिल की तलहटी में बसी है कलंदर कॉलोनी और दादा शिव पाटिल नगर. यहां आबादी और कचरे के पहाड़ के बीच की सीमा मिट चुकी है. दिल्ली में ऐसे तीन बड़े लैंडफिल हैं, जहां कचरे का निपटान किया जाता है. रोज़ाना पैदा होने वाला क़रीब 11 हज़ार टन कूड़ा सैकड़ों ट्रकों के ज़रिए यहां तक पहुंचता है. कचरे के इन पहाड़ों के पास घनी आबादी रहती है, हालांकि इसका सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन ये हज़ारों में है. कई लोग, जिनमें अधिकतर नाबालिग बच्चे हैं, यहां ताक़तवर चुंबकों के ज़रिए कचरे से कबाड़ बीनते नज़र आ जाते हैं.
दिल्ली में एक बड़ी आबादी कूड़े के पहाड़ों के पास रहती है, लेकिन कोई सटीक आँकड़ा नहीं है. पहाड़ जैसे ऊंचे हो रहे भलस्वा लैंडफिल की तलहटी में बसी है कलंदर कॉलोनी और दादा शिव पाटिल नगर. यहां आबादी और कचरे के पहाड़ के बीच की सीमा मिट चुकी है. दिल्ली में ऐसे तीन बड़े लैंडफिल हैं, जहां कचरे का निपटान किया जाता है. रोज़ाना पैदा होने वाला क़रीब 11 हज़ार टन कूड़ा सैकड़ों ट्रकों के ज़रिए यहां तक पहुंचता है.
कचरे के इन पहाड़ों के पास घनी आबादी रहती है, हालांकि इसका सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन ये हज़ारों में है. कई लोग, जिनमें अधिकतर नाबालिग बच्चे हैं, यहां ताक़तवर चुंबकों के ज़रिए कचरे से कबाड़ बीनते नज़र आ जाते हैं.एक नाबालिग बच्चा मुस्कुराते हुए कहता है, “ये हमारी चुन-चुन पार्टी है, इस कचरे में सब मिलता है. कई बार हम दो सौ रुपये भी नहीं कमा पाते और कई बार अगर क़िस्मत अच्छी हो तो इस कचरे में मिलने वाला माल हज़ारों में बिकता है.” भलस्वा लैंडफिल से सटकर बसी कलंदर कॉलोनी में नालियों का गंदा पानी सड़कों पर बह रहा है. मक्खियां बजबजा रही हैं. कई बच्चे, सड़क के सूखे हिस्से पर कंचे खेल रहे हैं. रोशनी अपनी झुग्गी तक जाने वाली सड़क को साफ़ कर रही हैं. आक्रोशित स्वर में वो कहती हैं, “हम जैसे लोग यहां कीड़ों की तरह रह रहे हैं. हम पर किसी का ध्यान नहीं जाता. नाली में गिरकर मेरी टांग टूट गई, इलाज में भारी ख़र्चा आया.”इस कॉलोनी में रहने वाले अधिकतर लोगों की शिकायतें एक जैसी हैं.गुलशन के पैरों में पस पड़ गया है. गली की गंदगी दिखाते हुए वो कहती हैं, “यहां लोग बीमार पड़ जाते हैं, लेकिन कोई सुध नहीं लेता. मेरे पैरों में पस पड़ा गया, स्टीफंस अस्पताल में इलाज कराना पड़ा.” दिल्ली में मुफ़्त वादों की होड़ में क्यों हैं आम आदमी पार्टी, बीजेपी और कांग्रेस, इन्हें पूरा करना कितना मुश्किलराहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने एक-दूसरे पर सीधे हमले क्यों शुरू कर दिए हैं?स्थानीय लोगों का कहना है कि कोई भी यहां अपनी मर्जी से नहीं रहता है, सभी मजबूरी में रहते हैं. एक दो मंज़िला झुग्गी की सीढ़ियों से कुछ बच्चे हाथों में किताबें लिए उतर रहे हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन कर रहीं तनु यहां बच्चों को पढ़ाती हैं.तनु उन्हें हाथ पकड़कर आगे निकालती हैं. अकसर ये बच्चे नाली पार करते हुए कीचड़ में गिर जाते हैं. तनु कहती हैं, “हम इन्हीं नालियों के बीच रह रहे हैं. इस तरह की झुग्गी में कोई मर्ज़ी से नहीं रहता, बल्कि सब यहां मजबूरी में रहते हैं.”एक तरफ कचरे का बड़ा पहाड़, दूसरी तरफ़ रिहायशी झुग्गी में पसरी गंदगी. यहां रहने वाले लोग ये दावा करते हैं कि इसका उनकी सेहत पर भी असर हो रहा है.19 साल की तमन्ना अपनी दो छोटी बहनों के साथ एक किराए की झुग्गी में रह रही हैं. उनका जन्म इसी बस्ती में हुआ. तमन्ना के माता-पिता की बीमारियों से मौत हो गई है. उनकी मां की नौ साल पहले कैंसर से मौत हो गई और डेढ़ साल पहले टीबी से पिता की मौत हो गई.तमन्ना कहती हैं, “हम कैसे रह रहे हैं, हम ही जानते हैं. झुग्गी का किराया देना पड़ता है. कई दिन हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं होता. लोग हमें रोटियां देते हैं.” माता-पिता की मौत के बाद बेसहारा छूटी इन बच्चियों तक किसी तरह की कोई सरकारी मदद नहीं पहुंच पा रही हैं. इनके दस्तावेज़ भी नहीं बन पाए हैं, जिससे इनकी ज़िंदगी और मुश्किल हो गई है. तमन्ना की एक पड़ोसन कहती हैं, “यहां लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं. हमें तो सरकारी अस्पताल में भी इलाज के लिए धक्के खाने पड़ते हैं.”
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