पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय को मुसलमान न मानने के 50 साल, अब तक क्या कुछ बदला?

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अहमदिया समुदाय के ख़िलाफ़ धार्मिक नफ़रत लंबे समय से चली आ रही थी, लेकिन यह आज से क़रीब 50 साल पहले 7 सितंबर 1974 को उस वक़्त और तेज़ हो गई, जब पाकिस्तान की संसद ने एक संवैधानिक संशोधन के ज़रिए अहमदियों को ग़ैर-मुस्लिम घोषित कर दिया.

अहमदी समुदाय के लोगों की क़ब्रों के साथ भी बेअदबी के मामले सामने आए हैं“हम इस मुल्क के लिए अपनी जान देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. उसके जवाब में हमसे जो सुलूक होता है और समाज हमें प्रताड़ित करने की कोशिश करता है, उससे न सिर्फ़ हमारे समुदाय बल्कि हर व्यक्ति को ठेस पहुंचती है.”

हालांकि, रशीद के मुताबिक़ पुलिस की ओर से उन्हें सिर्फ़ सांत्वना दी गई, जबकि ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. लेकिन ये सिर्फ़ रशीद की कहानी नहीं है. अहमदी समुदाय पर ज़ुल्म की ऐसी कई कहानियाँ आए दिन अख़बारों की हेडलाइन बनती रहती हैं. सितंबर 1974 में हुए इस संवैधानिक संशोधन के क़रीब 10 साल बाद पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक के शासनकाल के दौरान पाकिस्तानी राष्ट्र एक क़दम और आगे बढ़ा. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि 1984 में पारित इस अध्यादेश के बाद अहमदियों को अपनी आस्था के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारना मुश्किल हो गया और उन्हें विभिन्न मुक़दमों का सामना करना पड़ा.

बीबीसी उर्दू की टीम ने इस तरह के वीडियोज़ को इकट्ठा किया जो मुल्क में खुलेआम सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप आदि पर शेयर किए जा रहे हैं. हाल ही में देश के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसका शीर्षक था- ‘मॉनिटरिंग द प्लाइट ऑफ़ द अहमदिया कम्युनिटी’ . पाकिस्तान के ग़ैर-सरकारी संगठन ह्यूमन राइट्स कमीशन ऑफ़ पाकिस्तान के फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग मिशन के मुताबिक़, इस घटना में दो अज्ञात हमलावरों ने अहमदी समुदाय के एक व्यक्ति की गोली मारकर हत्या कर दी.

पुलिस की एफ़आईआर के मुताबिक़, शख़्स की हत्या सुबह 6:30 बजे की गई, लेकिन पीड़ित की पत्नी उमता अलबारी ने बीबीसी उर्दू को बताया कि पुलिस 12:00 बजे के बाद घटनास्थल पर पहुंची थी. एनसीएचआर की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अहमदी समुदाय के ख़िलाफ़ धार्मिक कट्टरता और उनकी ज़िंदगियों और संपत्ति को ख़तरा एक तत्काल समस्या है जिसके लिए सरकार द्वारा तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है.

रिपोर्ट के मुताबिक़, 39 मामलों में अहमदी समुदाय के लोगों के शवों को दफ़नाने के बाद क़ब्रों से बाहर निकाल लिया गया, 99 मामलों में क़ब्रों की बेअदबी की गई और 96 मामलों में अहमदी समुदाय के सदस्यों को सामान्य क़ब्रिस्तानों में दफ़नाने की अनुमति नहीं दी गई. पंजाब का शेख़ूपुरा शहर ऐसा ही एक इलाक़ा है. जब देश के अन्य शहरों से अहमदी समुदाय के धार्मिक स्थलों को निशाना बनाने की ख़बरें आने लगीं तो यहां की स्थानीय आबादी ने आगे आकर ये बात साफ़ कर दी कि उन्हें कोई समस्या नहीं है.क़ानूनी विशेषज्ञ यासिर लतीफ़ हमदानी के मुताबिक़, धार्मिक स्थलों के ख़िलाफ़ पुलिस की कार्रवाइयां 'संविधान का उल्लंघन' हैं

हालाँकि इस मामले में स्थानीय आबादी को कोई समस्या नहीं थी, लेकिन कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि कभी-कभी सरकारी संस्थाएँ ख़ुद अहमदी समुदाय के ख़िलाफ़ पक्षपातपूर्ण कार्रवाइयों में शामिल होती दिखाई देती हैं. बीबीसी उर्दू ने तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के नेता से ये भी सवाल किया कि सोशल मीडिया और रैलियों में भड़काऊ बयान देना भी पाकिस्तान के संविधान और क़ानूनों के तहत अवैध हो सकता है. इस सवाल पर अज़हरी ने कहा, “अगर कोई बात संदर्भ से हटकर कही जाएगी और अगर उसके बुनियादी सिद्धांतों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, तो तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के नेताओं के प्रति आपका यही रवैया होगा.

बीबीसी उर्दू ने शेखूपुरा में जिस अहमदी धार्मिक स्थल का दौरा किया, उसका निर्माण 1962-63 में किया गया था और लाहौर हाई कोर्ट के संदर्भ में इसे क़ानून के दायरे में नहीं आना चाहिए था. शेख़ूपुरा में रहने वाले एक स्थानीय अहमदी ने कहा कि अहमदी समुदाय ने "लाहौर हाई कोर्ट के फ़ैसले के बारे में पुलिस को भी सूचित किया था."

अहमदी समुदाय के धार्मिक स्थलों की मीनार गिराने और उन्हें नुक़सान पहुंचाने के मामले में पुलिस की मिलीभगत के आरोपों के बारे में यासिर लतीफ़ हमदानी का कहना था कि वो इन पूजा स्थलों को 'ध्वस्त' नहीं कर सकते हैं.

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