प्रयागराज में महाकुंभ की तैयारियां अंतिम चरण में हैं। इस अवसर पर, प्रयाग के ऐतिहासिक महत्व और द्वादश माधव परिक्रमा की पुनर्जागरण पर प्रकाश डाला गया है।
प्रयागराज में महाकुंभ की तैयारियां अपने अंतिम चरण में हैं। देश के ऐतिहासिक और पौराणिक नगरों में शामिल इस शहर का गौरवशाली इतिहास है। इतिहास भी इतना पुराना कि इसकी शुरुआत सृष्टि की रचना से होती है। समय के साथ कई पौराणिक महत्व की परंपराएं विलुप्त हो गईं। राज्य सरकार के प्रयासों से ऐसी ही कुछ परंपराएं बीते कुछ वर्षों में पुन: शुरू हुई हैं। ऐसी है एक परंपरा है द्वादश माधव परिक्रमा की। पुराणों में ऐसा जिक्र है कि सृष्टि की रचना के बाद भगवान ब्रह्मा प्रयाग में ही सृष्टि का पहला यज्ञ किया। इस पावन
नगरी के अधिष्ठाता स्वयं श्रीहरि विष्णु हैं। भगवान के यहां 12 स्वरूप विद्यमान हैं, जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है। ब्रह्मा जी के आग्रह पर श्री हरि विष्णु ने यज्ञ की रक्षा इन्हीं द्वादश रूपों में की थी। चक्र माधव मंदिर के महंत अवधेश दास जी बताते हैं कि यज्ञ की सुरक्षा के लिए स्वयं श्रीहरि विष्णु 12 माधव रूप में प्रयाग में विराजमान हैं। किला स्थित अक्षय वट भगवान के अग्निकुंड में चक्र माधव भगवान विराजमान हैं। चूंकि द्वादश माधव यज्ञ की रक्षा के लिए प्रयाग में विराजमान हैं, इसलिए सभी माधव अस्त्र-शस्त्र लिए हुए हैं। जैसे चक्र माधव चक्र के साथ विराजमान हैं। जिस तरह द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं, वैसे ही द्वादश माधव हैं। प्रलयकाल में भगवान अक्षय वट के पत्ते पर बाल रूप में विराजमान होते हैं। इसी तरह सृष्टि काल में भगवान 12 रूप में प्रयाग में वास करते हैं। भगावन माधव ही प्रयाग के राजा हैं। पद्म पुराण में भी इसका जिक्र है। त्रेता युग में महर्षि भारद्वाज करते थे द्वादश माधव परिक्रमा मान्यता है कि त्रेतायुग में महर्षि भारद्वाज के नेतृत्व में द्वादश माधव परिक्रमा होती थी। लेकिन, धीरे-धीरे परिक्रमा का दौर समाप्त हो गया। मुगल और अंग्रेजी शासनकाल में द्वादश माधव के मंदिरों को नुकसान पहुंचाया गया। देश को आजादी मिलने के बाद संत प्रभुदत्त ब्रह्माचारी ने भ्रमण करके द्वादश माधव की खोज की। फिर शंकराचार्य निरंजन देवतीर्थ ने धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ 1961 में माघ मास में द्वादश माधव की परिक्रमा आरंभ कराई। संतों और भक्तों ने तीन दिन में परिक्रमा पूरी की। हालांकि, 1987 में एक बार फिर परिक्रमा रुक गई। 1991 में स्वामी हरिचैतन्य ब्रह्मचारी ने एक बार फिर से इस परिक्रमा कराई, लेकिन दूसरे धार्मिक संग
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