यह लेख बस्तर के पत्रकार मुकेश चंद्राकर के जीवन और उनके काम को समर्पित है. उन्होंने बस्तर की पीड़ा, सुंदरता और न्याय की लड़ाई के चश्मदीद गवाह के रूप में पत्रकारिता में अपना स्थान बनाया.
बस्तर के घने जंगलों में जहां हर पत्ता संघर्ष और साहस की गाथा सुनाता है, वहीं मुकेश चंद्राकर ने एक पत्रकार के रूप में वो जगह बनाई जो आवाज़ों को साहस देने वाले नायकों का होता है. वह सिर्फ खबरों को रिपोर्ट नहीं करते थे, बस्तर की पीड़ा, उसकी सुंदरता और न्याय के लिए उसकी लड़ाई के चश्मदीद गवाह थे. बस्तर के जंगलों से निकलने वाली सच्चाई की हर गूंज में मुकेश चंद्राकर का नाम शामिल है, लेकिन मेरे लिए वह सिर्फ एक रिपोर्टर नहीं था. वह एक साथी था, जो मेरे प्यार, डांट और ठहाकों का गवाह भी था.
हर हफ्ते, दस दिनों में एक बार हमारी बात जरूर होती थी. कभी वह अपनी रिपोर्टिंग के बारे में बताता, कभी बस्तर की सच्चाई और कभी-कभी हमारी बातों में ठहाके भी गूंजते. चुन्नी का किस्सा और बदलती आदतें मैंने कई बार उसे पीटूसी (पीस टू कैमरा) करते हुए देखा, एक चुन्नी कंधे पर डालकर. एक दिन मैंने उसे टोका, मुकेश, यह चुन्नी क्यों पहनते हो? तुम पत्रकार हो, एक पेशेवर छवि दिखाओ. उसने मेरी बात को सहजता से लिया. इसके बाद उसने कभी कैमरे के सामने चुन्नी नहीं पहनी. यह छोटी-सी बात उसके सीखने और बदलने की आदत को दिखाती थी. पत्रकारिता की मांगें कभी-कभी कठोर हो जाती थीं. कई बार मैंने उससे एक ही खबर के लिए अलग-अलग शॉट्स और बाइट्स मांगीं. लेकिन न उसने कभी गुस्सा किया, न कोई शिकायत की. वह उसी प्यार और समर्पण के साथ नई बाइट भेज देता था. उसकी यह बात मुझे हमेशा प्रभावित करती थी. बस्तर से मुकेश का रिश्ता गहराई से जुड़ा था. एक बार बीजापुर से बासागुड़ा की यात्रा के दौरान, उन्होंने एक साथी से अपनी कहानी साझा की. महारपारा में इमली के पेड़ों और झाड़ियों के पीछे छिपे खंडहर की ओर इशारा करते हुए बोले, यह मेरा घर था. संघर्षों से गुजरी पत्रकार बनने की राह 1993 में दो साल की उम्र में अपने पिता को खोने वाले मुकेश का बचपन बासागुड़ा के इसी घर में बीता. उनकी मां आंगनबाड़ी कार्यकर्ता थीं और उन्हे अकेले दोनों बेटों की परवरिश क
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