बिहार के नए गवर्नर आरिफ मोहम्मद खान और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मुलाकात ने कई सवाल खड़े किए हैं। केरल में सरकार से मतभेदों के कारण उनका नाम नीतीश कुमार के साथ जुड़ने पर आश्चर्य है। आरिफ मोहम्मद खान के शिक्षा में सुधार के विचारों और यूनिवर्सिटी के चांसलर के रूप में उनकी भूमिका बिहार में राजनीति को गति दे सकती है।
बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान से मंगलवार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुलाकात की. गर्मजोशी भरी इस मुलाकात ने कई सियासी दावों की हवा निकाल दी. लेकिन कुछ सवाल भी खड़े हुए. आरिफ मोहम्मद खान जब केरल के राज्यपाल थे, तो उनकी वहां के सीएम पिनरई विजयन से कभी नहीं बनी. खासतौर पर यूनिवर्सिटी ज के वीसी को लेकर दोनों के बीच जबरदस्त मतभेद रहे. आरिफ मोहम्मद खान शिक्षा में सुधार को लेकर काफी एक्टिव रहे हैं, और गवर्नर होने के नाते वे सभी यूनिवर्सिटी के चांसलर भी हैं.
बिहार में भी उनके पास यही जिम्मेदारी होगी. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि दोनों के रिश्ते कब तक गर्मजोशी भरे रहते हैं. वो भी तब, जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कुलपतियों को लेकर एक गर्वनर से ठन चुकी है. केरल के गर्वनर रहते आरिफ मोहम्मद खान सरकार पर हमलावर रहे. सीएम पिनरई विजयन की ओर से भेजे गए दर्जनभर विधेयकों पर उन्होंने हस्ताक्षर नहीं किए. सरकार ने एक यूनिवर्सिटी के कुलपति के जनसंपर्क अधिकारी को निलंबित कर दिया तो आरिफ मोहम्मद खा ने अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए उन्हें फिर से पद पर तैनात कर दिया. हालात यहां तक आ गए कि उन्होंने राज्य की 11 यूनिवर्सिटी के कुलपतियों को इस्तीफा देने के लिए कह दिया. मामला उनकी नियुक्ति का था. सरकार ने सिर्फ एक नाम पर ही मुहर लगा दी थी और सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यूनिवर्सिटी के कुलपति को सर्च कमेटी के सिर्फ एक नाम प्रस्तावित करने के आधार पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है. फिर क्या था, गवर्नर ने इसे आधार बनाया और सभी को हटाने का फरमान जारी कर दिया. आरिफ मोहम्मद खान को बिहार भेजने के मायने ऐसे में बिहार में उनकी भूमिका कैसी होगी, इस पर सभी की निगाहें हैं. क्योंकि आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल ऐसे वक्त में बनाया गया है, जब राज्य में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. ऐसे में उनकी नियुक्ति के कई मायने निकाले जा रहे हैं. किसी को इसमें बीजेपी का ‘खेल’ नजर आता है, तो किसी को लगता है कि बीजेपी मुस्लिम समुदाय में पश्मांदा यानी पिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश कर रही है. कुछ लोग तो चुनाव के बाद का खेल भी देखने लगे है
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