शारदा सिन्हा ने आखिरी मुलाकात में अपनी भाभियों से कहा था कि खोइंछा भरि के हमरा पठाउ. बेटी के जत्ते देबै, नैहर तत्ते बेसी उन्नति करत. (खोइंछा भर कर मुझे ससुराल भेजें. बेटी को जितना नैहर से मिलता है, नैहर उतना ही खुशहाल रहता है)
शारदा सिन्हा , सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि संपूर्ण बिहार की पहचान हैं. बिहार की परंपराओं और पारंपरिक पर्वों की पहचान हैं. अब तक ऐसा नहीं हो सका कि बिहार के किसी घर में शादी-ब्याह की तैयारी चल रही हो और उस आंगन में शारदा सिन्हा के गीत नहीं बज रहे हों. बरबस यही बाध्यता लोक आस्था के महापर्व छठ सहित सामा चकेबा, मुंडन जैसी परंपराओं में भी रही है. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ऐसे अवसरों पर शारदा सिन्हा के गीत सुनने और बजाने की परंपरा हमेशा बनी रहेगी.
उनकी मौत की खबर पर हुलास गांव के लोगों को सहसा विश्वास नहीं हो रहा है. वे कहते हैं कि शारदा सिन्हा कहकर गई हैं कि वह छठ के बाद अपने मायके आएंगी. इसी साल बीते 31 मार्च को शारदा सिन्हा अपने भाई पद्मनाभ के पुत्र की रिस्पेशन में अपने मायके हुलास आई थीं. तभी अंतिम बार गांववालों ने अपनी लाडली को देखा था.उसके बाद वह गांव नहीं आईं. विवाह गीत गाकर उन्होंने वर-वधू को आशीष दिया था. गांव में रह रहे उनके परिजन कहते हैं कि शादी के माहौल में शारदा सिन्हा ने अपने आंगन में जमकर और खुलकर खूब गीत गायी थीं.
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