भारत-अमेरिका परमाणु समझौता: मनमोहन सिंह की कूटनीतिक जीत

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यह लेख डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के इतिहास और महत्व पर प्रकाश डालता है।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.

मनमोहन सिंह के कार्यकाल भारत की कूटनीति में एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है। उनके नेतृत्व में हुआ भारत-अमेरिका परमाणु समझौता न केवल भारत के ऊर्जा संकट का समाधान बना बल्कि दशकों से चले आ रहे परमाणु अलगाव को भी समाप्त कर दिया। यह समझौता भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाने वाला कदम था। लेकिन इस समझौते तक पहुंचना आसान नहीं था, जिसकी राह में चीन जैसा पहाड़ था तो घरेलू मोर्चे पर भी सहयोगी दल और विपक्ष रोड़े की तरह खड़े थे। परमाणु अलगाव का इतिहास 1974 में राजस्थान के पोखरण में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। इस कदम से दुनिया के शक्तिशाली देशों, खासकर अमेरिका ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। भारत पर तकनीकी और आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) का गठन हुआ, जिसने भारत को परमाणु और रणनीतिक तकनीक से अलग कर दिया। भारत ने परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह समझौता केवल कुछ गिने-चुने देशों को परमाणु हथियार रखने की अनुमति देता था। इस "परमाणु रंगभेद" के कारण भारत को दशकों तक अपने नागरिक और सैन्य परमाणु कार्यक्रमों के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। बदलते समीकरण और मनमोहन सिंह का उदय 1990 के दशक में भारत और अमेरिका ने अपने संबंधों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास शुरू किया। भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को ऊर्जा की आवश्यकता थी और अमेरिका भारत को एक उभरते हुए लोकतांत्रिक बाजार के रूप में देख रहा था। इसके बाद वाजपेई काल में हुए 1998 के परमाणु परीक्षण ने एक बार फिर सैंक्शन की बाढ़ लगाई और भारत अमेरिका संबंधों को बेपटरी कर दिया जिसे पटरी पर लाने में वाजपेई सरकार को अपने कार्यकाल के अंत तक कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। 2004 में यूपीए सरकार के सत्ता में आने के बाद, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस जटिल मुद्दे को हल करने का बीड़ा उठाया। 2005 में अमेरिकी विदेश मंत्री के प्रस्ताव के बाद, दोनों देशों ने विवादित परमाणु मुद्दे को सुलझाने पर सहमति जताई। तीन वर्षों की कूटनीतिक लड़ाई 2005 से 2008 तक, मनमोहन सिंह ने इस समझौते को मूर्त रूप देने के लिए जबरदस्त राजनीतिक और कूटनीतिक संघर्ष किया। वामपंथी दलों और भाजपा ने इस समझौते का विरोध किया

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