राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सौवें वर्ष: भारतीय विचारों का संघर्षविहीन विश्व में प्रसार

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सौवें वर्ष: भारतीय विचारों का संघर्षविहीन विश्व में प्रसार
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लेख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सौवें वर्ष पर केंद्रित है और मोहन भागवत के विचारों की भूमिका पर प्रकाश डालता है। यह बताता है कि आरएसएस का लक्ष्य एक संघर्षविहीन और शांतिपूर्ण समाज और देश का निर्माण करना है और भारतीय विचारों को दुनिया भर में फैलाकर विश्व में 'कुटुंब भाव' का प्रसार करना है।

बद्री नारायण। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस वर्ष अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरा करने जा रहा है। ऐसे में यह पूरा वर्ष संघ पर बौद्धिक विमर्श का होगा। इसमें आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत के हाल के अनेक रूपांतरकारी विचारों की भी चर्चा होगी। उनके ये विचार धीरे-धीरे संघ एवं भारतीय समाज को आंतरिक एवं बाह्य रूप से प्रभावित भी करेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कभी ऊपर से आए विचार आधार तल तक जाते हैं तो कई बार आधार तल से उठे विचार ऊपर तक पहुंचते हैं। संघ आज एक बड़ी भूमिका में है। वह एक तरह से समाज निर्माण की

प्रक्रिया निभाते हुए दुनिया भर में कुटुंब भाव जगाने की आकांक्षाओं से भरा है। ऐसे में उसकी पहल गुणात्मक रूप से भी परिवर्तनकारी होगी। इसी भूमिका की छाया मोहन भागवत के प्रयासों में आजकल लगातार दिख रही है। हाल के समय में मोहन भागवत ने भारतीय समाज को जोड़ने के लिए अनेक साहसिक विचार व्यक्त किए हैं। वह संघ के इतिहास में एक सामाजिक भविष्यदर्शी प्रमुख के रूप में उभरे हैं। वह एक संघर्षविहीन भारत एवं विश्व के निर्माण के लिए बार-बार हस्तक्षेप कर रहे हैं। उनके ये हस्तक्षेप वस्तुतः उस भारतीय मानस की अभिव्यक्ति है, जिसके मूल में हिंदू मानस की अंत:शक्ति निहित है। उनकी यह कोशिश है कि हिंदू मानस इस अंत:शक्ति को अपनाकर एक संघर्षविहीन परिवर्तनकारी दुनिया रचे, जिसकी दिशा एवं दृष्टि समाहार पर टिकी हो। आज साम्राज्यवादी अहंकार, स्वार्थी आकांक्षा, बाजार की नकारात्मक प्रतिद्वंद्विता ने दुनिया में अनेक तरह के टकरावों एवं युद्धों को जन्म दिया है। एक तरफ यूक्रेन एवं रूस का युद्ध चल रहा है, तो दूसरी तरफ इजरायल, फलस्तीन एवं पश्चिम एशिया के देशों का घातक टकराव चल रह है। चीन की साम्राज्यवादी आकांक्षाएं भी पूरे एशिया को अपने आगोश में लेती जा रही हैं। पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में हिंसक प्रवृत्तियों का कारनामा हम देख ही रहे हैं। ऐसे में भारतीय विचार को एक प्रकाश स्तंभ के रूप में सामने लाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका बढ़ती जा रही है। मोहन भागवत आज की टकराहटों से विश्व एवं समाज को मुक्त कराने में भारतीय दृष्टि को बड़ी भूमिका में देखते हैं। वह मानते हैं कि भारतीय विचारों से ही आज के टकरावों का समाहार हो सकता है। देश-दुनिया में टकरावों का समापन कर समरस, समाज गढ़ने के उनके साहसिक वैचारिक अभियान को अनेक बुद्धिजीवियों का समर्थन भी मिल रहा है। यह वह समय है, जब हरेक विचार का लक्ष्य समाज एवं विश्व में कुटुंब भाव पैदा करना होना चाहिए। हालांकि मोहन भागवत के विचारों की कुछ लोग आलोचना भी करते हैं, किंतु वह अपने आलोचकों की भी बात सुनते हैं, क्योंकि एक संघर्षविहीन भारतीय समाज गढ़ने के लिए यह जरूरी है। संघ प्रमुख एक तरफ इतिहास से आहत हिंदू मन की स्मृति को ठीक करने के अभियान में लगे हैं, दूसरी तरफ भारतीय समाज की दूसरी बड़ी आबादी मुस्लिम को भी टकराव छोड़कर मिल-जुल कर रहने के संदेश से जोड़ने का सतत प्रयास कर रहे हैं। वह इसे लेकर प्रयत्नशील हैं कि मन के घाव मिटाकर नए ढंग से सब लोग मिल-जुल कर रहें-ठीक वैसे, जैसे स्वामी घनानंद द्वारा लिखित ‘स्वामी रामकृष्ण एंड हिज यूनिक मैसेज’ पुस्तक में अभिव्यक्त किया गया है। इसमें कहा गया है कि हिंदू धर्म इस अर्थ में विशिष्ट है, क्योंकि वह ऐतिहासिक रूप से एक उच्च चेतना का प्रतिनिधित्व करता है और वह इस बात में विश्वास करता है कि अकेले कोई धर्म एकमात्र सत्य नहीं है और न ही एकमात्र मुक्ति का मार्ग। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सौवें वर्ष का एक बड़ा मिशन एक नए भारतीय पुनर्जागरण का नेतृत्व करना एवं संघर्षविहीन शांतिपूर्ण समाज एवं देश गढ़ने के विमर्श को प्रभावी बनाना दिखता है। ‘हिंदू समाज’ एक समाहारी मन वाला समाज है, किंतु कुछ ‘ऐतिहासिक घाव’ भी उसकी स्मृति में शामिल हैं। आज ‘हर मस्जिद में मंदिर’ खोजने की प्रवृत्ति से भारतीय समाज को बचाने की आवश्यकता है। संघ प्रमुख अपने विचारों से समाज की अनेक रूढ़ियों से भी जूझ रहे हैं। मेरे कुछ मित्र नाराज हो सकते हैं, किंतु मैं यह कहना चाहूंगा कि इतिहास के इस मोड़ पर हरेक विचार, हरेक पंथ से जुड़े लोगों को अपनी अस्मितागत बाध्यताओं से मुक्त होकर संघ प्रमुख के विचारों पर गौर करना होगा। मोहन भागवत ने संघ के विचारों को सर्वाधिक समाहारी बनाने के लिए लगातार प्रयास किया है। वह हिंदू समाज को अपने ‘भारतीय हिंदू मन’ में अवस्थित करते हुए इतना विशाल बनाना चाहते हैं, जिसमें कोई भी ‘गैर’ न रह जाए। हालांकि यह बहुत बड़ा मिशन है, जिसे पाने में वर्षों लग सकते हैं। यह समय की मांग है कि ‘विचार’ की व्याख्या करने वाले बौद्धिकों को हंस की तरह हर उस तत्व की तलाश कर उसे प्रभावी बनाने की कोशिश करनी चाहिए, जो समाज को जोड़ सके एवं देश-दुनिया में परिवार भाव पैदा कर सके। इस वक्त टकरावों, संघर्षों एवं आकांक्षाओं के महासंग्राम में दुनिया जल रही है। ऐसे में भारतीय विचार पूरी दुनिया में कुटुंब भाव रच सकते हैं, किंतु जरूरत है उन्हें फैलाने की। भारतीय समाज को आज नए पुनर्जागरण की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस सौवें वर्ष में शायद इस मिशन को पूरा करने के लिए अपने संकल्प को बौद्धिक एवं जमीनी आधार दे सके। (लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं

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