लोकसभा चुनाव: संसद में आदिवासी महिलाओं का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है?

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लोकसभा चुनाव: संसद में आदिवासी महिलाओं का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है?
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लोकसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए 47 सीटें रिज़र्व हैं लेकिन इनमें भी आदिवासी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम होता है. आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक पार्टियां टिकट देने से परहेज क्यों करती हैं?

साल 2022 में द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनीं.इसी का एक दूसरा पहलू ये भी है कि आदिवासी महिला राष्ट्रपति होने के बावजूद, राजनीति में अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की हिस्सेदारी काफ़ी कम है.

मुन्नी हांसदा इसी आंदोलन का मुख्य चेहरा बनकर उभरी थीं. उन्होंने कंपनी के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ तक़रीबन सात महीने जेल में भी बिताए थे. वो मानती हैं कि उनकी जैसी साधारण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं के लिए राजनीति में अपने बूते जगह बना पाना बहुत मुश्किल है.वो बताती हैं, ''इसके पीछे वो दो-तीन मुख्य वजहें हैं. पहला कि कोई भी बड़ी पार्टी आपको टिकट नहीं देती. आपके पास पैसे हों, संसाधन हो, मज़बूत राजनीतिक बैकग्राउंड हो, तभी टिकट मिलने की उम्मीद है लेकिन अगर आपके पास इन तीनों में से कुछ भी नहीं है और आप महिला हैं, तो आपका कुछ नहीं हो सकता.

साल 2000 से 2019 तक इस प्रदेश ने कुल चार लोकसभा चुनाव देखे हैं लेकिन इन चार चुनावों में प्रदेश से चुनकर देश की संसद तक का रास्ता चार महिलाएं भी पूरा नहीं कर सकी हैं. आज़ादी के बाद हुए पहले आम चुनाव से लेकर पिछले 2019 के आम चुनाव तक इस प्रदेश से 12 आदिवासी महिला संसद चुनी गई हैं.

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