विष्णु नागर का व्यंग्य: हंसने की आजादी थी तो लोग मुखिया जी पर हंसते थे, लेकिन अब...

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विष्णु नागर का व्यंग्य: हंसने की आजादी थी तो लोग मुखिया जी पर हंसते थे, लेकिन अब...
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कुछ केवल दूसरों की मूर्खता पर हंसते थे और कुछ अपनी मूर्खता पर भी हंसना जानते थे। कुछ तो इतना हंसते थे, जितना कि लोग अमूमन दूसरों की मूर्खता पर भी नहीं हंसते। ऐसों को कोई उनके मुंह पर मूर्ख कह देता था तो इस बात पर भी वे हंस देते थे।

रोने की आजादी तो हर देश में हर समय होती है मगर उस देश की विशेषता यह थी कि उसमें हंसने की भी पूरी आजादी थी। बहाना की देर थी, लोग अपनी -अपनी तरह से हंसने लगते थे और हंसते ही चले जाते थे। बिना किसी भेदभाव के सब हंसते थे। बच्चे भी, बूढ़े भी। औरतें भी, मर्द भी। किसान भी, मजदूर भी। अफसर भी, क्लर्क भी। दलित भी, सवर्ण भी। शहरी भी, ग्रामीण भी‌‌। हंसना सिर्फ उनकी आदत नहीं थी, उनका राष्ट्रीय संस्कार बन चुका था। एक अच्छी बात यह थी कि लोग ताकतवरों पर हंसते थे।.

कुछ बेहिसाब हंसते थे और कुछ हंसने का पाई- पाई का हिसाब रखते थे। एक पाई भी अधिक खर्च हो जाए तो परेशान हो जाते थे। उन्होंने अपने लिए हंसने का मासिक कोटा तय कर रखा था। उससे कम हंसने में वे अपना गौरव मानते थे और इससे अधिक हंसना वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे। मान लो, किसी महीने, किसी मजबूरी में उन्हें अधिक हंसना पड़ जाता था तो अगले महीने कम हंसकर वे हिसाब बराबर कर लेते थे। कुछ हिसाब से हंसनेवालों पर और कुछ बेहिसाब हंसनेवालों पर हंसते थे। कुछ मुसीबत पड़ने पर भी हंसते थे और कुछ मुसीबत को छोड़कर बाकी...

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