विष्णु नागर का व्यंग्य: चड्डी- चिंतन कथा

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विष्णु नागर का व्यंग्य: चड्डी- चिंतन कथा
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संस्कृति की रक्षा पुरानी चड्डी से ही संभव थी। इधर चड्डी की हालत पतली होते देख, पैंट पहनने की सलाह दी जाने लगी थी मगर, हवा की जो ताजगी इससे प्राप्त होती थी, जो चिरंतन आनंद, चिंतन की जो साख चड्डी में थी, वह न पैंट में थी, न धोती में हो सकती थी।

एक थे चड्डीश्वर। चड्डी जहां पहनना चाहिए, वहां तो पहनते ही थे मगर जहां नहीं पहनना चाहिए, वहां भी पहनते थे। उदाहरण के लिए उसे कमीज की तरह भी पहनते थे। वह चड्डी ही बिछाते थे और चड्डी ही ओढ़ते थे और चड्डी-चिंतन ही करते थे। पेंटिंग भी चड्डी रंग में चड्डी की किया करते थे। उनका चड्डी-गायन चड्डियों के बीच अद्भुत माना जाता था। चड्डी ही उनका ईश्वर थी, चड्डी ही उनकी विश्व गुरु।दरअसल वह बने भी चड्डी के थे। उनकी मांस- मज्जा चड्डी निर्मित थी। दिल भी उनका चड्डी का था और दिमाग भी। चड्डी पर उनका सबकुछ निर्भर...

चड्डी वैसे भी उनका पहला और अंतिम प्यार थी।उसे कैसे भुलाया जा सकता था! ठीक है, दूसरा -तीसरा-चौथा प्यार भी हो जाता है मगर जो बात पहले प्यार में होती है, वह बाद वाले में नहीं !चड्डी उनका आदर्श थी, उनकी उन्नत नासिका थी, उनका कान थी, उनका मुखड़ा थी, उनका पैर थी, उनका हाथ थी, उनका पेट थी। उसके बिना वह रह कैसे सकते थे? तुझ बिन रहा, न जाय, जैसी हालत थी।बहुत सोचा, बहुत मंथन किया, बहुत योग किया, बहुत भोग किया , बहुत ढोंग किया मगर कुछ समझ में नहीं आया। राष्ट्र- चिंतन किया, हिंदू -मुसलमान किया, लव जेहाद...

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