शारदा सिन्हा के जीवन का सबसे बड़ा संदेश ये है कि अपने नाम के मुताबिक़ वे ज्ञान और संगीत दोनों को साथ लेकर चलीं.
‘पग-पग लिये जाऊं तोहरी बलैयां’….जैसे गीत के भाव को अपने स्वर से हम सबके भीतर जीवित करने वाली शारदा सिन्हा चली गईं. उनके बिना कोई छठ पूरा नहीं होता, ना ही आगे हो सकेगा.
इसी आकाशवाणी केंद्र से शारदा सिन्हा ने भी अपने स्वर के उत्कर्ष का सफर शुरू किया. सन 1973 में शारदा सिन्हा ने जब गाना शुरू किया तो वो सुगम-संगीत से जुड़ी थीं. गीत-ग़ज़ल-भजन गाया करती थीं. उन्हीं दिनों आकाशवाणी पटना में ऑडिशन हुआ. हम बाक़ायदा समय लेकर निकले, लेकिन मुंबई मेट्रो निर्माण की वजह से उस दिन कुछ ज़्यादा ही ट्रैफिक था. हमें पहुंचने में इतनी देर हो गयी कि मुझे डर था अब कार्यक्रम ख़त्म हो गया होगा.
उन्होंने बताया कि ये गीत छठ के अगले दिन सूरज उगने पर गाया जाता है. मुंबई वो शहर है जो एक तरह से तमाम संस्कृतियों का संगम है. जो छठ पटना में गंगा तट पर होता है, वो मुंबई में अरब सागर के किनारे होता है. इसके बाद ये तय हुआ कि जीजी दोपहर का भोजन हमारे घर पर ही करेंगी और इंटरव्यू के बाद आराम भी यहीं हो जायेगा. मैं कहूंगा कि साक्षात सरस्वती का हमारे घर आगमन हुआ था उस दिन. हम बहुत कहते रहे कि आप अंदर चलकर पलंग पर आराम कर लें—पर वो सोफ़े पर ही सहजता से लेट गयीं और बातें करती रहीं.
बल्कि कुछ एक बार तो उन्होंने बीते दौर के अपने किसी पसंदीदा फिल्मी-गाने के ऑडियो भी गुनगुनाकर भेजे. हम प्रार्थना करते रहे कि वे जल्दी स्वस्थ होकर लौटें और ऐसा हुआ भी. बिहार के समाज की विसंगतियों के बावजूद उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा पूरी की. वे हमेशा कहती थीं कि इसमें उनके पिता सुखदेव ठाकुर और पति डॉ. बृजकिशोर सिन्हा दोनों का बड़ा अहम योगदान रहा. बृज किशोर जी ने हमेशा पहले उनके नृत्य और फिर उनके गायन को प्रोत्साहन दिया.
उन्होंने समाज के सामने एक मिसाल पेश की कि अगर हम अपनी बच्चियों को आगे बढ़ने दें तो वो किस तरह सब कुछ निभाते हुए समाज का सितारा बन सकती हैं. शारदा जी ने गायकी की दुनिया में अपनी आसमान जितनी लोकप्रियता के बावजूद नौकरी नहीं छोड़ी. उन्होंने हमेशा अपनी संस्कृति, अपने समाज का दामन भी पकड़े रखा. जब भी मिलतीं या दिखतीं—माथे पर बड़ी-सी गोल लाल ठसकदार बिंदी, चमकदार साड़ी...कितनी गरिमा.
पर सिन्हा साहब ने हार नहीं मानी. अगले दिन उन्होंने एचएमवी के उस अस्थायी स्टूडियो जाकर वहां के अधिकारी से बात करने की इच्छा ज़ाहिर की.सिन्हा साहब और मुरली जी दोनों पान के शौकीन. दोनों बातचीत करते हुए साथ पान खाने गये. जहां सिन्हा साहब ने ये निवेदन किया कि शारदा जी का दोबारा ऑडिशन ले लिया जाए. इस बार शारदा जी ने गाया—ये एक ऐसा गीत था जो शारदा जी ने अपने परिवार में एक विवाह के मौक़े पर अपनी भाभी से सीखा था. और उसके गंवई रूप को थोड़ा-सा बदलकर एच एम वी के ऑडीशन में गाया.
अगली मुंबई यात्रा में शारदा जी ताराचंद जी से मिलीं. और उन्हें अपना एक भोजपुरी गीत सुनाया. राजकुमार बड़जात्या को ये गाना बड़ा पसंद था, बोल थे—'कुछवो ना बोलब चाहे'. इस गाने के आधार पर 'कहे तोसे सजना' लिखा गया और इसे रिकॉर्ड किया गया. अस्सी के दशक में शारदा जी ने छठ के गीत गाने शुरू किए थे. उनका पहला छठ गीत था—'अंगना में पोखरी खनाएब हे छठी मैया'. ये गाना उन लोगों के जज़्बात का बयान था जो किसी का
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