एक सखी राधा को श्रीकृष्ण के प्रेम के बारे में चेतावनी देती है, लेकिन राधा उनके प्रेम के बारे में गहराई से विश्वास रखती है।
एक बार श्रीकृष्ण के कठोर प्रेम को लेकर राधा जी से सहानुभूति तथा विशेष स्नेह रखने वाली सखी ने कहा- 'राधे! श्रीकृष्ण बड़े ही निष्ठुर, निर्मोही देव हैं। इस तरह किसी निष्ठुर से प्रेम करने का क्या लाभ है? तुम उनके वियोग में इतनी दुखी हो, रात-दिन जलती रहती हो, इसका उनको पूरा पता है, तब भी वे इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते। ऐसी परिस्थितिगत तुम उनका मन से त्याग कर दो, तो सर्वोत्तम है। इस दुःख से पार पाओ सखी।' यह बात सुनकर श्री राधा जी को बड़ी मर्म पीड़ा लेकिन फिर भी मन में तिरस्कार का भाव न लाते हुए
राधा ने जवाब दिया-'सखी! तुम ऐसी मूर्खता-भरी बातें मत करो। प्राणनाथ की निन्दा करके मेरे हृदयपर चोट मत पहुंचाओ। वे जीवनके जीवन सदा सुखी रहें। तुम मुझे उनके गुणों की और उनकी मीठी कुशल की बात सुनाओ। वे दूर ते या समीप, वस्तुतः वे मुझसे पलभर भी पृथक नहीं रहते। वे निरन्तर (आठों पहर) मेरे हृदय में बसे रहते हैं, कभी भी इधर-उधर नहीं जाते। मेरे हृदय में तनिक भी वियोग संताप नहीं है, वहां यदि ताप होता तो मेरे प्राण-प्रियतम का सुकोमल शरीर जल जाता इसलिए मेरे हृदय में मुदिता तथा शीतलता भरी रहती है, इतना सुख रहता है कि वह वहां समाता नहीं। मुझको एक क्षण के लिए भी वे दुखी देख लेते हैं, तो लगातार उदास रहने लगते हैं। सखी। उनके सुख से मेरे हृदय में नित्य सुख-सागर की लहरें उछलती रहती हैं। प्रेम और वियोग संताप नहीं है बल्कि एक ऐसी अग्नि है, जिसमें तपकर प्रेम खरा सोने जैसा चमक उठता है।' श्रीराधा की इन उक्तियों को सुनकर सखी चकित रह गई और श्रद्धापूर्ण उत्सुकता के साथ वह निर्निमेष श्रीराधा की ओर देखती रह गई। दूसरी अपने मन में बसी कृष्ण की छवि का ध्यान करके श्रीराधा मुस्कुराती रहीं
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