लेखक अशोक वाजपेयी संसार में युद्धों की व्याप्तता और शांति की दुर्लभता को रेखांकित करते हैं। वे दो लंबे युद्धों का उदाहरण देते हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध रोकने के अभूतपूर्व निराशावादी परिणामों पर प्रकाश डालते हैं।
लेखक: अशोक वाजपेयी संसार इतना विपुल-जटिल-बहुल है कि उसके बारे में कोई सामान्यीकरण करना बहुत कठिन है। फिर भी इस समय व्यापक रूप से जो स्थिति है उसे एक अंतर्विरोध के रूप में ही देखा जा सकता है। संसार की अनेक सत्ताएं किसी न किसी रूप में युद्ध रत हैं, युयुत्सा और हिंसा से भरी हुई हैं जबकि ज्यादातर लोग शांति , अमन-चैन चाहते हैं। युद्ध प्रेमी सत्ताएं इसके बावजूद जन-समर्थन पाती रहती हैं। ऐतिहासिक अनदेखी इस समय कम से कम दो लंबे युद्ध चल रहे हैं। रूस को यूक्रेन पर हमला बोले तीन साल होने वाले हैं, जबकि
गाजा पर इस्राइल के हमले को भी एक साल से ज्यादा का समय हो चुका है। हर दिन बच्चे, बूढ़े, महिलाएं और अशक्त लोग मारे जा रहे हैं। अस्पताल, स्कूल, धर्मस्थल, शरणार्थी शिविर नष्ट किए जा रहे हैं और संसार लगभग चुपचाप, लाचार यह नरसंहार देख रहा है। चूंकि इस समय संचार साधन बहुत सक्षम और तेज हो गए हैं, तो दारुण दृश्य और खबरें घर-घर पहुंच रहे हैं। फिर भी, इन युद्धों को रोकने की कोई कारगर पहल नहीं हो रही है। कई बार यह संदेह होता है कि संसार ने युद्ध की अनिवार्यता और शांति की असंभावना को स्वीकार कर लिया है। युद्धों को दो देशों के बीच लड़ाई की तरह देखा जाने लगा है। इससे जो व्यापक विनाश, क्रूरता, हिंसा आदि हो रहे हैं, उनकी जैसे संसार अनदेखी कर रहा है। बेमिसाल निष्ठुरता उत्तर-आधुनिक समय अपनी निष्ठुरता में इतना बेमिसाल और अभूतपूर्व होगा, ऐसी उम्मीद शायद ही किसी ने की हो। 21वीं शताब्दी का एक चौथाई समय समाप्त होने को है और सारे संसार में इधर-उधर से भागकर आए शरणार्थियों की संख्या भयावह रूप से बढ़ रही है। उन्हें रोकने-थामने के लिए यानी बेघरबार और बेराहत छोड़ने के लिए सख्त कानून बन रहे हैं। राजकीय निर्दयता उभार पर है। निरुपाय संसार याद करना चाहिए कि 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संसार भर में अणु बम के विरोध में आंदोलन हुए थे। इनमें बड़ी संख्या में आम लोगों, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों आदि ने भाग लिया था। अब ऐसी कोई उग्र चेतना संसार में नजर नहीं आती। युद्ध रोकने के अंतरराष्ट्रीय प्रयत्न इतने कमजोर और निष्प्रभावी हैं कि उन्हें देख अचरज होता है। संसार युद्ध रोकने में इतना निरुपाय पहले कभी नहीं रहा। यह सब तब हो रहा है, जब आम लोग शायद किसी भी देश में युद्ध नहीं चाहते, उन्हें हमेशा शांति की इच्छा और तलाश रहती है
युद्ध शांति अंतरराष्ट्रीय संबंध हिंसा संचार निष्क्रियता अशोक वाजपेयी
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