कबतकनिर्भयाः तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था… KabTakNirbhaya DeepaliiAgrawal HyderabadHorror
क्या लिखें? कितना लिखें? कब तक लिखें। कलम कांपने लगी हैं अब, जिस स्याही को रक्त की तरह बहना था वह आंसुओं की तरह सूख चुकी है। चीखों को सुन-सुनकर कानों के परदे फट गए हैं। आत्माएं मर चुकी हैं और उनका पुनर्जन्म भी नहीं हुआ। अगर यह सत्य नहीं है तो द्रौपदी के चीरहरण से लेकर तेलंगाना की आग तक क्या कुछ बदल दिया हमने? कितनी बार कोशिश की उस विचार को आग लगा देने की जिसने सोचा कि किसी स्त्री को बिना सहमति के भी छुआ जा सकता...
गाहे-बगाहे निर्भया सामने आ ही जाती है। कभी किसी गांव में, कभी शहर में, कभी उसकी मांग में सिंदूर होता है तो कभी वो किसी आंगन में खेल रही होती है। लेकिन वह खु़द को भूलने नहीं देती और लगे कि हम भूल रहे हैं तो उसका फिर शिकार कर लिया जाता है। इस बार वह तेलंगाना में थी अपनी ख़राब स्कूटी के पास। वह डॉक्टर थी और उसे लगा कि वह जानवरों का इलाज करेगी।
“लड़कियां माल नहीं होतीं, वो देवी भी नहीं होतीं वो तो बस लड़कियां होती हैं जिनकी इज़्ज़त और हिफ़ाज़त उतनी ज़रूरी है जितनी तुम्हारी। उनकी आवाज़ पुलिस थाने की फ़ाइल में बंद हो जाने के लिए नहीं है और न ही उनकी रौशनी संसद भवन तक किए कैंडल मार्च के लिए है। वह सिर्फ़ देह मात्र नहीं है बल्कि तुम्हारे अस्तित्व का वह हिस्सा हैं जिससे तुम्हें जीवन मिला है। तुम मत बैठो उनके लिए धरने पर, ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। तुम तो बस वह कहो उनसे जो कैफ़ी आज़मी ने कहा किअपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझेअपने साथ चलने को...
यह समाज ऐसा ही रहेगा लड़कियों, यह सिस्टम नहीं बदलेगा। तुम्हें ख़ुद ही उठना होगा, तुम ही बरतना एहतियात और मजाज़ की एक बात गांठ बांध लोयह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमेंक्या लिखें? कितना लिखें? कब तक लिखें। कलम कांपने लगी हैं अब, जिस स्याही को रक्त की तरह बहना था वह आंसुओं की तरह सूख चुकी है। चीखों को सुन-सुनकर कानों के परदे फट गए हैं। आत्माएं मर चुकी हैं और उनका पुनर्जन्म भी नहीं हुआ। अगर यह सत्य नहीं...
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