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12 अक्टूबर 1998 को दिल्ली के सीएम साहिब सिंह वर्मा ने इस्तीफा दिया। वो अपने पैतृक घर मुंडका जाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन 5 हजार जाटों ने सीएम हाउस घेर रखा था। सीएम हाउस के बाहर एक सरकारी बस खड़ी थी।ऐसे कैसे इस्तीफा ले लेंगे। तू जाट है… तू कैसे चला जावेगा। हम तुझे जाने ही नहीं देंगे।
1977 में वे दिल्ली नगर निगम के पार्षद बने। 1991 में बाहरी दिल्ली से लोकसभा लड़े, लेकिन सज्जन कुमार से हार गए। 1993 में दिल्ली विधानसभा का पहला चुनाव हुआ। शालीमार बाग से 21 हजार वोटों से जीते और मदन लाल खुराना की सरकार में शिक्षा मंत्री बने। इसके बाद खुराना के मंत्रिमंडल में शामिल रहने वाले और उनकी पसंद के नेता डॉ. हर्षवर्धन के नाम पर विचार हुआ, लेकिन कहा गया कि वे अभी बहुत जूनियर हैं। जब समस्या का निदान नहीं हो पाया तो विधायकों से पूछा गया कि वही बताएं कि किसे सीएम देखना चाहते हैं।
खत्री के मुताबिक, 'साहिब सिंह को सीएम चुनने से पंजाबी-बनिया की बीजेपी, गांव-देहात की पार्टी भी बन गई। साहिब सिंह के चलते एक बड़ा हिस्सा जिसे 'दिल्ली देहात' कहते हैं, बीजेपी से जुड़ा। जब साहिब सिंह मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने देहात के लिए मिनी मास्टर प्लान बनाया। गांवों में कम्युनिटी सेंटर, डेवलेपमेंट सेंटर और तरह-तरह के प्रयोग शुरू किए।'
जवानों ने उनके फ्लैट के बाहर कॉलोनी के पार्क में ही टेंट लगा दिया था। पार्क पर सरकारी 'अतिक्रमण' से लोग परेशान हो रहे थे। लोगों ने सीधे वर्मा से कहा, 'आपकी सिक्योरिटी के चक्कर में पार्क में अब वॉक करना भी मुश्किल हो गया है।' साहिब सिंह वर्मा का घर हो या दफ्तर उनके दरवाजे हमेशा सबके लिए खुले रहते थे। सुबह 6 बजे से ही लोग उनसे मिलने आ जाते थे।साहिब सिंह वर्मा केवल 4 घंटे सोते थे। उनका दिन सुबह 4 बजे शुरू हो जाता था। इसके बावजूद भी वे समय के पाबंद नहीं थे। सुबह 6 बजे से ही उनके घरों में मिलने वालों की भीड़ जमा हो जाती थी।
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ मिश्रा बताते हैं, 'एक बार मैं जब उनके चेंबर में गया तो देखा कि ढेर सारी चेयर्स लगी थीं। वो एक कोने में एक टेबल लगाकर बैठे लोगों की शिकायतें सुन रहे थे। तभी एक बुजुर्ग के किसी कागज पर उन्होंने साइन करके कहा कि अब काम हो जाएगा।' साहिब सिंह के प्रयासों से दिल्ली विधानसभा परिसर में हर तरह का नशा प्रतिबंधित हुआ था। वे अपने सरकारी बंगले पर गाय रखते थे। उसी देसी गाय का दूध रोज पीते। उसी दूध का बना घी खाते थे। उन्हें नौकरों के हाथ का खाना पसंद नहीं था।
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