अखाड़ों में अनुशासन सर्वोपरि है और इसका उल्लंघन करने वाले संतों को सजा का सामना करना पड़ता है। इन सजाओं में से एक है चिलम-साफी बंद करना जो एक गंभीर सजा मानी जाती है। इस सजा के तहत संत को अखाड़े के नाम का साफा नहीं पहनने दिया जाता और न ही उनके साथ चिलम पीने की अनुमति होती...
शरद द्विवेदी, जागरण महाकुंभनगर। बेलौस अंदाज, बेबाक और निर्भीक रहने वाले अखाड़ों में अनुशासन सर्वोपरि है। छोटे से लेकर ख्यातिलब्ध संत नियम-कानून से बंधे होते हैं। बाहरी दुनिया में उनका चाहे जितना बड़ा आभामंडल हो, अखाड़े के अंदर सबको अनुशासित रहना पड़ता है। अखाड़े के नियम की अवहेलना करने पर सजा के भागीदार बन जाते हैं। कुछ सजा ऐसी होती है जिससे हर संत भयभीत रहते हैं। उसमें प्रमुख है चिलम-साफी बंद करना। अनुशासनहीनता करने वाले संतों का समाज से सामूहिक बहिष्कार किया जाता है। एक अखाड़े से बहिष्कृत संत...
वहीं, अखाड़ों के अधिकतर संत विपरीत वातावरण में रहकर तपस्या करते हैं। ऐसे संत चिलम पीते हैं। चिलम-साफी बंद होने पर संबंधित संत अखाड़े के नाम का साफा नहीं पहन सकते और उनके साथ कोई चिलम नहीं पीता। अपमानजनक स्थिति होती है। आवाहन अखाड़ा के राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमहंत सत्य गिरि बताते हैं कि जिस संत की चिलम-साफी बंद होती उसमें तमाम प्रायश्चित करते हैं। वह एक वर्ष तक प्रायश्चित करते हैं। वर्षभर बाद अखाड़े के सभापति, पंच के सामने प्रस्तुत होकर क्षमायाचना करते हैं। अखाड़े के आराध्य की प्रतिमा के आगे कान...
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