जीवन और व्यवहार का सत्य तो नाट्यशाला का ही सत्य है किंतु जो व्यवहार जगत से ऊपर उठकर विचार और मुक्ति में जीवन की सार्थकता मानते हैं वे पर्दे की आड़ में छिपे हुए सूत्रधार की ओर दृष्टि डालते हैं। इससे उनका अंतकरण राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। किंतु यह विचार जगत की व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में ही देखा जाना...
श्रीरामकिंकर जी महाराज। महाभारत में काल की अनिवार्यता का प्रतिपादन बार-बार किया गया है। काल की इस अनिवार्यता के प्रतिपादन से मनुष्य के अंत:करण में निरुपायता का बोध होता है। लगता है कि व्यक्ति के सारे प्रयत्न व्यर्थ है। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या काल ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी है, जो ईश्वर की सृष्टि को अपनी इच्छा के अनुरूप चलाने की चेष्टा करता है? क्या उसकी यथेच्छाचारिता को रोकने की क्षमता ईश्वर में नहीं है? गीता में अर्जुन पूछते हैं कि 'न चाहते हुए भी व्यक्ति पाप की ओर क्यों प्रवृत्त...
नाट्यशाला का ही सत्य है, किंतु जो व्यवहार जगत से ऊपर उठकर विचार और मुक्ति में जीवन की सार्थकता मानते हैं, वे पर्दे की आड़ में छिपे हुए सूत्रधार की ओर दृष्टि डालते हैं। इससे उनका अंत:करण राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। किंतु यह विचार जगत की व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में ही देखा जाना चाहिए। व्यवहार में इसकी स्वीकृति जटिलताओं की सृष्टि करती है। महाभारत और गीता में भी भगवान दो भिन्न भूमिकाओं में दिखाई देते हैं। एक ओर वे कर्तव्याकर्त्तव्य का निरूपण करते हैं, व्यक्ति को पाप के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा...
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