कभी 'हाथी' को मजबूत करने साइकिल लेकर निकल जाया करती थीं मायावती

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कभी 'हाथी' को मजबूत करने साइकिल लेकर निकल जाया करती थीं मायावती
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मायावती मैदान में डटी रहीं और उत्तर प्रदेश में पार्टी को वहां ला खड़ा किया जहां से तमाम लोगों ने बसपा को एक राजनीतिक ताकत के रूप में देखना शुरू किया... चो चलिए आपको ले चलते हैं बसपा, कांशीराम और मायावती के इसी शून्य से शिखर तक पहुंचने के राजनीतिक किस्सों पर...

सर्दियों की एक शाम, कांशीराम मायावती से मिलने उनके घर पहुंचे. इस मुलाकात के बाद एक समय ऐसा आया जब राजनीति में उतरने को लेकर मायावती का अपने परिवार से मतभेद बहुत अधिक बढ़ गया. बाद में उन्हें अपना घर छोड़कर कांशीराम के यहां रहने जाना पड़ा. क्योंकि, उस रोज हुई भेंट के बाद मायावती एक निर्णायक फैसले ले चुकी थीं जिसकी बदौलत बाद में मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं.

लेकिन, 1977 में बसपा संस्थापक कांशीराम से यूं ही हुई एक आकस्मिक मुलाकात ने उनका जीवन हमेशा के लिए बदल दिया. मायावती उस समय को याद करते हुए कहती हैं, 'यह मेरे राजनीतिक करियर की शुरुआत थी और मैं इसे बहुत महत्वपूर्ण मानती हूं.' स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण की अध्यक्षता में आयोजित जाति तोड़ो समारोह में मायावती को आमंत्रित किया गया. इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को चुनावी हार का सामना करना पड़ा था. इंदिरा की हार के बाद जनता पार्टी सरकार का रास्ता साफ हो गया.

सर्दियों की एक शाम, कांशीराम उनसे मिलने उनके घर गए. मायावती का परिवार तब तक घर का सारा काम खत्म कर चुका था और वह अपनी सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर रही थीं. उनकी किताबों पर नजर डालते हुए कांशीराम ने मायावती से पूछा, 'जीवन में आपकी महत्वाकांक्षा क्या है?" मायावती ने जवाब दिया कि वह लोगों की सेवा करने के लिए IAS बनना चाहती हैं. कांशीराम ने कहा कि वह राजनेता बनकर बेहतर सेवा कर सकेंगी. मायावती बताती हैं, 'श्री कांशीरामजी के शब्दों ने मुझ पर प्रभाव डाला.

बसपा की शुरुआत छोटे पैमाने पर हुई थी, जिसमें शायद ही कोई पैसा, कैडर या प्रभावशाली व्यक्तित्व थे. इसकी सफलता खुद को बार-बार विकसित करने, लगातार अपनी नीति बदलने और हर सामने आए राजनीतिक अवसर का फायदा उठाने की क्षमता में निहित थी. समय के साथ जब भी पार्टी को लगा कि वो खतरे में है, इसने खुद को रूढ़िवादी पहचान की राजनीति करने वाली पार्टी से अधिक उदार वाली पार्टी में बदल लिया. जिसका परिणाम यह हुआ कि 1990 के दशक में बसपा एक आंदोलन से राजनीतिक पार्टी में बदल गई.

उनकी हार के तुरंत बाद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी को एक घटना याद आती है- कांशीराम उन्हें दृढ़निश्चयी कहते थे. एक दिन मैंने उनसे पूछा कि क्या वह चुनाव हारने से निराश हैं. उन्होंने कहा,"अरे नहीं, उनमें दम है. जब मायावती आईं, तो वह पहले से ही अगले चुनावों के बारे में बात कर रही थीं. बिना किसी डर के, उन्होंने 1985 में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट बिजनौर से लोकसभा उपचुनाव लड़ा. वह गांव-गांव पैदल और साइकिल से घूमीं.

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