कल्पवासी पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक कुंभ मेले में रहेंगे। उनकी आस्था मेले की सफलता का आधार है।
माहीने भर कुंभ मेले में ही रहने वाले कल्पवास ी पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक यहीं रहेंगे। 13 जनवरी से शुरु होकर 45 दिन चलने वाले महाकुंभ मेले ने कई हफ्तों की तैयारी के बाद आखिरकार पूरी तरह रूप ले लिया है। यूपी के प्रयागराज में करीब 20 वर्ग किलोमीटर में फैला एक अस्थायी शहर बसाया गया है। गंगा के ऊपर कई पीपा पुलसंतों के शिविर बन चुके हैं और कई संत अपने अपने भक्तों के साथ इनमें पहुंच भी चुके हैं। लेकिन सन्यासियों की मीडिया कवरेज की चकाचौंध के परे देखिए तो आपको नजर आएंगे सिरों पर और बगल में
गठरियां दबाए मेले में चले आ रहे लाखों 'कल्पवासी'। \कल्पवासी पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक यहीं रहेंगे। अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए एक महीने तक वे गंगा के किनारे ही सामान्य शिविरों में रहेंगे, रोज सुबह संगम में डुबकी लगाएंगे, दिन में सिर्फ एक बार भोजन करेंगे, पूजा करेंगे, संतों की बातें सुनेंगे और कल्पवास का अंत होने पर जो भी यहां लेकर आए थे उसे दान कर लौट जाएंगे।\मेले से 25,000 करोड़ रुपयों की कमाई होने का जो अनुमान है, वो एक तरह से इन्हीं कल्पवासियों की आस्था पर टिका है। संगम तक पहुंचने के लिए नाव वालों की कमाई भी इन्हीं से होगी, अर्पण करने के लिए चढ़ावा भी ये ही खरीदेंगे, नाश्ते के स्टॉल से कचोरियां और चाय भी इन्हीं के दम पर बिकेंगी और ठेलों पर से पेठे, रेवड़ी और गजक भी ये ही लेंगे। मोटी कमाई लग्जरी टेंटों से और कमरों का किराया कई गुना बढ़ा चुके होटलों से जरूर होगी, लेकिन उनका इस्तेमाल करने वाले जिस मेले का आनंद लेने आए हैं, उस मेले का अस्तित्व कल्पवासियों की आस्था से है। लेकिन जरा कल्पना कीजिए कि कल्पवासी भी अगर अपना पूरा साल अपने अपने काम को ही समर्पित कर दें और कल्पवास का यह एक महीना कुंभ के लिए नहीं निकालें, तो क्या होगा? क्या हफ्ते के सातों दिन दफ्तर में काम करने की सलाह देने वाले बड़ी बड़ी कंपनियों में बड़े बड़े पदों पर बैठे लोग एक मेले को एक महीने का समय देने की इस तत्परता को समझ पाएंगे? इसी तत्परता में आध्यात्म के अलावा कहीं ना कहीं वर्क-लाइफ बैलेंस का संदेश भी छिपा है। \सर्दियों के जाने और बसंत के आने के बीच के इस मौसम में मेलों के आयोजन की भारत के कई राज्यों में परंपरा है। प्रयागराज में भी हर साल संगम के तट पर माघ मेले का आयोजन किया जाता है। यही माघ मेला हर 12 सालों पर कुंभ मेले का रूप ले लेता है, जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने अब महाकुंभ का नाम दे दिया है। यह सर्दियों की फसल की कटाई और गर्मियों की फसल की बोआई के बीच का समय होता है। किसान परिवार इस समय को अगले कृषि मौसम के लिए खुद को तैयार करने में बिताते हैं और मेलों में शामिल होना इस तैयारी का हिस्सा रहा है। कल्पवासी एक महीने तक गंगा के किनारे आम शिविरों में रहते हैं, रोज सुबह संगम में डुबकी लगाते हैं, दिन में सिर्फ एक बार भोजन करते हैं और कल्पवास खत्म होने पर बाकी सामान दान कर लौट जाते हैं क्योंकि मेलों का मतलब है काम से ब्रेक लेना, अपनों के साथ समय बिताना, हंसना, बोलना, नाचना, गाना और जीवन के उन पहलों से एक बार फिर रूबरू होना जिनसे जीवन की आपाधापी में संपर्क टूट जाता है। इस संपर्क को दोबारा बनाने को आज खुद को रिचार्ज करना कहा जाता है। लेकिन माघ मेलों की परंपरा में इस रिचार्ज का दर्शन सदियों से घुला मिला हुआ है
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