आज का शब्द: अकाट्य और दिनेश कुमार शुक्ल की कविता- काँसे की कलियों के भीतर
' हिंदी हैं हम ' शब्द शृंखला में आज का शब्द है- अकाट्य , जिसका अर्थ है- जो काटा न जा सके, जिसका खंडन न हो सके। प्रस्तुत है दिनेश कुमार शुक्ल की कविता- काँसे की कलियों के भीतर नयी भूमि थी नया धरातल ताँबे का जल जस्ते का फल काँसे की कलियों के भीतर चाँदी की चाँदनी भरी थी पारे का पारावार मछलियाँ सोने की था मत्स्य न्याय का लोहे जैसा अहंकार निर्मल अकाट्य था अष्टधातु का तर्क और मरकतमणि के गहरे प्रवाल के जंगल थे, जंगल में आँखें रह-रहकर जल उठती थीं फास्फोरस की सिलिकन के मस्तिष्क में छुपी...
अभिव्यक्ति दहकती थी जैसे बारूदी चुप्पी अभ्रक की चट्टानों के थे सिद्धपीठ पर्वत की ऊँची चोटी पर गन्धक के बादल सोते थे पत्थर की आँखें थीं उस युग के भाष्यकार की नीलम की पुतलियाँ अचंचल सधी हुई एकाग्र लक्ष्य पर आखेटक-सी इंटरनेट के राजमार्ग पर शोभायात्रा निकल रही थी तत्त्व ज्ञान की, अर्थशास्त्र के सूचकांक में संचित था सारा संवेदन राजनीति थी गणित, गणित में समीकरण थे ज्यों ही मानुषगन्ध भरा कोई विचार उस देश-काल में करता था संचार घंटियाँ ख़तरे की बजने लगती थीं, सब खिड़कियाँ और दरवाज़े अपने आप बन्द जो जाते...
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