राजस्थान के एक गांव में मां-बाप अपने बच्चों को कर्ज उतारने के लिए बेच रहे हैं। इस गांव में रहने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति बेहद गरीब है और उनके पास कमाई का कोई स्थायी जरिया नहीं है। वे उधार लेकर जीवन यापन करते हैं और कई बार अपने बच्चों को बेचकर भी कर्ज चुकाने में असमर्थ रहते हैं।
मेरे तीन छोटे बच्चे थे और कमाई एक रुपए भी नहीं थी। कई साल ऐसे बीते जब मेरे पास कोई काम नहीं था। मेरे पास न खेती के लिए जमीन थी और न ही चराने के लिए कोई मवेशी। उधार लेकर और छोटे मोटे काम कर जैसे-तैसे अपने परिवार को एक वक्त का खाना खिला पाता था। धीरे-धगांव के एक जानने वाले ने मुझे सन्नी से मिलवाया और कहा ये तुम्हारी मदद कर सकता है। सन्नी के पास गया तो उसने पूछा घर में कौन-कौन है। मैंने बताया दो बेटी, एक बेटा, मैं और मेरी पत्नी। उसने तुरंत कहा बड़ी बेटी मुझे दे दो और पैसे ले जाओ। मैंने सन्नी को
एक लाख रुपए के बदले एक साल के लिए बड़ी बेटी बिंदिया दे दी। उसने मेरी 10 साल की बेटी पता नहीं किसे बेच दी। मुझसे कहा था बीच-बीच में बिंदिया से मिलवाता रहेगा। उसे पढ़ाएगा-लिखाएगा। मिलवाना तो दूर उसने कभी फोन पर भी हमारी बात नहीं करवाई। गोपीचंद के इतना बोलते ही उनकी पत्नी संगीता रोने लगती हैं। कहती हैं- मैं अपनी बच्ची को देखने के लिए तरस गई। सन्नी ने कहा था एक साल बाद पैसे लौटा देना, बेटी वापस ले जाना। सालों बीत गए, लेकिन बेटी घर नहीं आई। ब्लैकबोर्ड में आज स्याह कहानी राजस्थान के उस गांव की जहां मां-बाप कर्ज उतारने के लिए लीज पर भेज रहे बेटियां… शाम के अभी 6 ही बजे हैं, कोटा से 110 किलोमीटर दूर नादियाखेड़ी की कंजर बस्ती में सन्नाटा पसरा है। दिसंबर की सर्द रात में यहां दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आता। अंधेरे को चीरते मेरी गाड़ी गोपीचंद के घर पहुंची। गोपीचंद अपनी पत्नी संगीता के साथ घर के बाहर चूल्हे के पास बैठे हुए थे। मैंने पूछा पूरी बस्ती में अंधेरा है, लाइट कब तक आएगी। जवाब मिला यहां बिजली का कनेक्शन नहीं है। इस बस्ती में कोटा पत्थर से बने हुए 10-15 मकान हैं और किसी भी मकान पर प्लास्टर नहीं है। यहां कंजर समुदाय के लोग रहते हैं जिनके पास आय का कोई स्थायी जरिया नहीं है। न खेत, न मवेशी और न ही कोई व्यवसाय। मैंने गोपीचंद से पूछा आप क्या करते हैं? वो कहते हैं मेरे पास कोई काम नहीं है। कभी किसी के मवेशी चरा देता हूं या मजदूरी कर लेता हूं। कभी घर आ जाता हूं तो कभी घर भी नहीं आता
CHILD LABOUR POVERTY KARNATAKA SOCIETY HUMAN RIGHTS
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